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________________ १९९४ जयोदप-महाकाव्यम् [ ५२-५४ वरणत्रयमत्र यन्मतं जिनरत्नत्रयवत् समुन्नतम् । परिनिवृतिसाधनत्वतस्त्रिजगन्मोदकरं महत्त्वतः ॥५२॥ वरणत्रयमित्यादि-पुनरत्रोपाश्रये यदुरणत्रयं प्राकारत्रितयं तद् रत्नत्रयवन्मतं यतः समुन्नतमुच्चराकाशे गतं रत्नत्रयं चोन्नतिदायकं परिनिर्वृतेर्मुक्तेः साधनत्वतो निमित्तकारणत्वतः पक्षे तूपावानकारणत्वतोऽतश्च महत्त्वतस्त्रिजगतां मोदकर प्रसन्नता-- बायकमित्युपमालंकारः ॥५२॥ गरवद् वरवस्तुयोगतः प्रकृतं तीर्थकृतः प्रयोगतः । अपवृत्य हि कर्मकाष्टकं भवतीदं भुवि मङ्गलाष्टकम् ॥५३॥ गरवदित्यादि-वरस्य श्रेष्ठस्य वस्तुनो रसायनस्य योगतः प्रसङ्गतो गरं विषं यथा तथा तीर्थकृत आदिपुरुषस्य प्रयोगतः समागमतः कर्माणि च तानि ज्ञानावरणादीनि एव कर्माणि तत्र समूहार्थे कं तदेव हि किलापवृत्य परिवर्तमुपेत्य भुवोह भूतले मङ्गलानां शर्मदायकवस्तूनां कलश-भृङ्गार-ध्वजा-दर्पण-छत्र-चमर-तालवृन्त-स्वस्तिकाभिधानानामष्टकं तदिदं भवति यद् द्वारं द्वारं प्रति वर्तते प्रकृतं प्रस्तुतमिति दृष्टान्तपूर्वकोऽपह.नुवोऽकारः ॥५३॥ सुचिरं शुचिरद्य कुम्भनी स्थितिरस्यां न मयावलम्विनी । इतिधूपघटास्य धूमकच्छलतश्चोच्चलदेव मस्त्यकम ॥५४॥ प्राप्त हो रहा था ।।५।। ___ अर्थ-समवसरणमें जो तीन कोट थे, वे जिनेन्द्रदेवके द्वारा प्रतिपादित रत्नत्रयके समान समुन्नत-उत्कृष्ट (पक्षमें ऊँचे) थे, परिनिवृति-निर्वाण (पक्षमें संतोष) के साधन होनेसे और महत्त्वतः-श्रेष्ठता (पक्षमें ऊँचाई) के कारण तीनों जगत्के जीवोंको आनन्द देने वाले थे ॥५२।। ___ अर्थ-जिस प्रकार रसायन आदि उत्कृष्ट वस्तुके संयोगसे विष औषध रूपमें परिवर्तित हो जाता है, उसी प्रकार तीर्थकरके संयोगसे ज्ञानावरणादि आठ कर्म भी परिवर्तित होकर समवसरण भूमिमें आठ मङ्गल द्रव्य रूप हो गये थे । तात्पर्य यह है कि समवसरणमें १ कलश, २ भृङ्गार, ३ ध्वजा, ४ दर्पण, ५ छत्र, ६ चमर, ७ व्यजन और ८ स्वस्तिक ये आठ मङ्गल द्रव्य विद्यमान थे, जो आठ मङ्गल द्रव्य न होकर ज्ञानावरणादि आठ कर्मोंके परिवर्तित रूप थे॥५३॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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