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________________ ५०-५१ ] षड्विंशः सर्गः ११९३ तोऽपि तथाऽऽशुगाद्वायोः पक्षे कामाद् भीषरा तथाकृतेः सवा विशदा सुनिर्मला संवर जलं तद्वत् खमाकाशं यस्याः सा पक्षे संवरो जिनभगवानेव तद्वत् खं बुद्धिर्यस्याः सा । 'खमा का दिवि सुखे, बुद्धौ संवेदने पुरे' 'संवेरं सलिले मेघे संवरोऽथ जिनान्तरे' इति च विश्वलोचने ॥४९॥ किमु नाकरमाश्रमाम्भसः किमु सिद्धर्मदभूदृशोरसः । नभसो रभसोदयी पतत्यपि गन्धोदकवत्तिरूपतः ॥५०॥ किमु नाकेत्यादि-अपि च गन्धोदकविन्दुरूपतो यत्र रभसाद्वेगादुदयो यस्य स रभसोदयी रसः पतति स किमु नाकरमायाः स्वर्गलक्ष्म्याः श्रमाम्भसः प्रस्वेदस्य रसोऽथवा किम सिखः स्वयंमुक्तेरेव मवभृत् प्रसन्नताहेतुको वृशोश्चक्षुषो रस इति वितर्कोऽलंकारः ॥५॥ विचलद्दलवल्लतावनं मरुता चालिरुताप्तकीर्तनम् । धृतलास्यमिवास्य पश्यतां दृशि याति प्रभुभक्तिशस्यताम् ॥५१॥ विचलद्दलवदित्यादि-सातिकातोऽग्रेऽभ्यन्तरस्याहवुपाश्रयस्य लतावनमस्ति, तच्च मरुता वायुना विचलन्ति बलानि यस्य तत्तथालीनां भ्रमराणां रुतं गुञ्जनं तेनाप्तं कीर्तनं येन तदेव वाप्तं कीर्तनं येन तत् पश्यतां लोकानां दृशि दृष्टौ धृतं समारब्धं लास्यं नृत्यं येन तदिव तथा प्रभोरर्हतो भक्त्या शस्यता श्लाध्यतां याति लभत इत्युत्प्रेक्षालंकारः॥५१॥ धैर्यशालिनी है, उसी प्रकार परिखा भी सुगभीरा-अत्यन्त गहरी है। जिस प्रकार मेरी चित्तवृत्ति आशुग-भीषरा-कामसे भय धारण करती है, उसी प्रकार परिखा भी आशुगभीषरा-वायुसे भय धारण करती है-अर्थात् लहरोंके छलसे कम्पित रहती है, जिस प्रकार मेरी चित्तवृत्ति-मनोवृत्ति कृतेः-कार्यसे विशदउज्ज्वल है, उसी प्रकार परिखा भी आकृतेः-आकारसे उज्ज्वल है और जिस प्रकार मेरी चित्तवृत्ति संवरखा-जिनेन्द्र भगवान्में संलग्न बुद्धिसे सहित है उसो प्रकार परिसा भी संवरखा-पानीके समान आकाशसे सहित है अथवा आकाशके समान निर्मल जलसे सहित है ।।४९।।। अर्थ-समवसरणसे आकाशमें गन्धोदक वृष्टिके रूपमें जो शीघ्र शीघ्र रसकी वृष्टि हो रही थी, वह रस क्या स्वर्गलक्ष्मीका पसीना था ? या मुक्तिरूपी लक्ष्मीके नेत्रसम्बन्धी हर्षाश्रुओंका समूह था ? ||५०॥ ___ अर्थ-समवसरणमें परिखाके आगे वह लतावन था, जिसके पत्ते हवासे हिल रहे थे, जिस पर बैठे भ्रमर मानों कीर्तन कर रहे थे, जो देखने वालोंकी दृष्टिमें नृत्य करता हुआ सा जान पड़ता था तथा प्रभु भक्तिसे प्रशंसनीयताको Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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