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________________ ४५-४६ ] षड्विंशः सर्गः ११९१: शब्दोच्चारणरूपं परं सर्वोत्कृष्टमुच्चाटनं कार्मणमेव क्रियते । 'वैदिरगुलिमुद्रायां बुधेः संस्कृतभूतले', 'णकारो निर्णये ज्ञाने' इति च विश्वलोचने ॥४४॥ जिनतोऽभिमतः पराजयः स्वयमस्मान्नयमञ्जुला लयः। कुसुमानि सुमायुधस्य तत्करतश्चाम्बरतः पतन्त्यतः ॥४५॥ जिनत इत्यादि-जिनतो जिनेन श्रीमता सुमायुधस्य कामदेवस्य पराजयः स्वयमेव जात इत्यभिमतः सर्वसम्मतोऽस्ति । अस्मात्कारणात्पुनस्तस्य लयः प्रच्छन्नीभावोऽपि नयमञ्जुलो नीतिसुन्दरः समुचित एवास्ति । अतः पुनर्लयार्थ प्रव्रजतः कुसुमायुधस्य कुसुमानि: तस्य करतो हस्तात्पतन्ति यत्राम्बरतः पतन्ति यानीत्युत्प्रेक्षालंकारः ॥४५।। परिषौतमिवाम्बरं शुचि हरितां तीर्थसवोद्भवा रुचिः । धरणीतलमब्वनिर्मलं जगतां सम्मदसृष्टये बलम् । ४६॥ परिधौतमिवेत्यादि-यत्राम्बरमाकाशं तद् धोतं वस्त्रमिव शुचि भवति । हरितां दिशानां रुचिराभा तीर्थसवादृतुस्नानादुद्भवो यस्याः सेव भवति । धरणीतलं चान्दवद्दर्पणतुल्यं निर्मलं भवति । जगतां प्राणिनामपि सर्वेषां सम्मदस्य हर्षस्य सुष्टये समुद्भूतये बलं भवतीत्यत्रोपमालंकारः । 'हरितः ककुभि स्त्रियाम्' इति विश्वलोचने ॥४६॥ वाला है, शार्मण-सुखदायक है और कर्मरूप शत्रुओंका उच्चाटन करने वाला है ।।४४॥ अर्थ-समवसरण में आकाशसे पुष्पवृष्टि हो रही थी, जिससे ऐसा जान पड़ता था कि कामदेव जिनराजसे पराजित होकर अदृश्य हो गया-छिप गया । अब मानों उसके हाथसे उसके शस्त्ररूप पुष्पोंकी वर्षा हो रही है। भावार्थ-समवसरणमें पुष्पवर्षा हो रही थी पर बरसाने वाला दिखायी नहीं देता था। इस सन्दर्भ में कविने कल्पना की है कि कामदेव जिनराजसे पराजित हो गया यह बात सर्व सम्मत है । पराजित होनेके कारण लज्जासे वह छिप गया और छिपकर आकाशसे अपने शस्त्र-पुष्पोंको जिनेन्द्रके आगे छोड़ रहा है। पराजित शत्रु विजेताके आगे अपने शस्त्र डाल देता है, यह प्रसिद्ध है ॥४५|| अर्थ-जिस समवसरणमें आकाश धुले हुए वस्त्रके समान उज्ज्वल है, दिशाओंकी आभा ऋतुस्नानसे उत्पन्न हुएके समान है, पृथिवी तल दर्पणके समान निर्बल है और जहाँकी शक्ति प्राणियोंके हर्षोत्पत्ति के लिये है ।।४६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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