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________________ ३५-३७] षड्विंशः सर्गः ११८७ क्व समिष्टविशिष्टपारणा क्व च तन्निष्ठघनिष्ठधारणा । द्वितयेऽपि चयेऽपिता श्रिया खलु दोलायितमङ्गिनां धिया ॥३५॥ क्वेत्यादि-क्व तु समिति पूर्णरूपेणेष्टोऽनन्तवीर्यनामराजा तेन विशिष्टा पारणा किलोपवासानन्तरं भुक्तिरिव सन्तृप्तिरूपा, क्व च पुनस्तनिष्ठा जयकुमारहृदयस्था घनिष्ठा कष्टसाध्या किन्त्वनिवार्यरूपा धारणा बुद्धिरुपवासात् पूर्व तन्निर्धारणरूपा स्थितिर्वा तयोद्वितयेऽपि चये समुपस्थितेऽपिता प्ररूपिता श्रीः शोभा यया, तयाङ्गिनां धिया बुद्धया खलु दोलायितम् ॥३५॥ । जगतस्तु सबाधकार्यतां नितरां स्वैरितरां तथार्यताम् । अवधार्य च कार्यकोविदाः समिताः किन्तु रहस्यसंभिदा । ३६।। जगत इत्यादि-किन्तु ये कार्ये कर्तव्ये कोविदा विद्वांसस्ते जगतोऽस्य संसारस्य बाधासहितमेव भवति कार्य यस्य तत्तां सबाधकार्यतां तथार्यतां महापुरुषतां पुनितरामत्यन्तमेव स्वैरितरां स्वस्यैवाधीनां कैरप्यन्यैरन्यथा कर्तुमशक्यामित्यवधार्य विनिश्चित्य रहस्यस्य गोप्यस्यान्तस्तत्त्वस्य संभिदा भेदनेन यद्वा संविदा समीचीनज्ञानेन समितास्तटस्थतां गताः । अनुप्रासोऽलंकारः ॥३६॥ पदयोः सदयोपयोगिनः परिपेतुनिखिला नियोगिनः । वचसा न च साक्षिणोऽप्यमी जयतादेव भवादशो यमी ॥३७॥ गई थी ? अवश्य हो गई थी। तात्पर्य यह है कि उनके गृहत्याग रूप वचनको सुनकर सभामें सन्नाटा छा गया-सब लोग चुप हो गये ॥३४॥ __ अर्थ-कहाँ अत्यन्त इष्ट अनन्तवीर्यकी पारणा-उपवासके पश्चात् होने वाली भुक्तिसम्बन्धी तृप्ति और कहाँ जयकुमारके हृदयमें स्थित उपवासकी धारणा, इन दोनोंके बीच में स्थित लोगोंकी बुद्धि दोलाके समान आचरण कर रही थी। भावार्थ-एक ओर अनन्तवीर्यके राज्यप्राप्तिका हर्ष और दूसरी ओर जयकुमारके वियोगका दुःख, दोनोंके बीच मनुष्योंकी बुद्धि चञ्चल हो रही थी। हर्ष मनाया जावे या विषाद, इसका निर्णय लोग नहीं कर पा रहे थे।।३५॥ ____ अर्थ-किन्तु कार्य करनेमें निष्णात मनुष्य 'जगत्के सब कार्य बाधासे सहित हैं, तया महापुरुषोंकी पूज्यता अत्यन्त स्वाधीन है-किसीके द्वारा अन्यथा नहीं की जा मकती, ऐसा निश्चय कर आत्मतत्त्वके प्रकट अथवा ज्ञात होनेसे तटस्थताको प्राप्त हो गये ॥३६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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