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२५-२६ ]
षड्विंशः सर्गः
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द्विपरीतस्तौ सुजतीति सुक् तत्तया रहितः सन् नटवन्नृत्यकारकमयं वत्तटवत दृक्तया - मध्यस्थवृत्त्या नित्रसन् नतां सदाचारधारिणीं विनीतां जनतां समाश्वसे आश्वासनेन सम्भावयेः, किन्तु विश्वसेस्तु स्वमनस्यपि नैवापरस्य तु पुनः का वार्ता ? न जाने कदा कीदृशी दशा स्यादिति । अनुप्रासोऽलंकारः ॥ २४॥
स्वयमन्तरितांस्तु शल्यवज्जय युक्त्यैव मदादिकान् ध्रुवम् । अरिमग्निमिवोपतापकं जलवत् तूद्दलनाश्रयः स्वकम् ||२५||
स्वयमित्यादि -- हे अप ! त्वमन्तरितानन्तरङ्गतः संगतान् मदादिकानरीन् स्वयं शल्यजत् कण्टकव युक्त्यैव ध्रुवमवश्यमेव जय निवारय, किन्त्वग्निमिवोपतापकं बहिरुप करतया प्रजासु विप्लव भूततया वा सन्तापकरमरि स्वकं तु पुनर्जलव बुद्दलनाश्रय उद्रिक्त बलयुक्तः सम्भवन् संस्तथा जय निराकुरूपेक्षां मा कुरु । उपमालंकारः । कामक्रोधमदमात्सर्यालस्यादयोऽन्तरिताः शत्रवः ॥२५॥
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प्रकृतीरनुरन् जयजयन् द्विषतो भद्र ! सतो मुदं नयन् । प्ररुजोऽङ्गज ! राजयक्ष्मणः पृथिवीं रक्ष विपक्षलक्ष्मणः ||२६||
प्रकृती रित्यादि - हे भद्र ! त्वं प्रकृतीरमात्यादीन् राजवर्गीयान् जनाननुरञ्जयन्
तटस्थ वृत्तिसे विनोत जनताको आश्वसित करना चाहिये-सदा उत्साहित करना चाहिये, परन्तु विश्वास करते समय अपने हृदयका भी विश्वास नहीं करना चाहिये, फिर अन्य मनुष्यकी तो बात ही क्या है । विश्वासके विषय में नटके समान चेष्टा होना चाहिये ।
भावार्थ - जिस प्रकार नृत्य करनेवाला सबकी ओर देखता है, जिससे दर्शक समझता है कि यह हमारी ओर देख रहा है, पर वास्तवमें वह किसी एककी ओर नहीं देखता । इसी प्रकार राजाको ऐसा व्यवहार करना चाहिये 'कि जिससे लोग समझें यह मुझसे प्रसन्न हैं, परन्तु वास्तव में उसकी प्रसन्नता किसा एककी ओर नहीं रहती ||२४||
अर्थ -- शल्यकी तरह अन्तर्गत मदादि शत्रुओं को तुम निश्चित ही युक्ति द्वारा स्वयं जीतो उनपर विजय प्राप्त करो और अग्निके समान बाह्यमें संताप करनेवाले शत्रुको तुम प्रचण्ड शक्तिसे युक्त होते हुए जलको तरह स्वयं नष्ट करो |
भावार्थ - जिस प्रकार जल अग्निको समूल नष्ट कर देता है, उसी प्रकार तुम विप्लवकारी शत्रुको बलपूर्वक स्वयं नष्ट कर दो, उपेक्षा न करो ||२५|| अर्थ - हे भद्र पुत्र ! मन्त्री आदि राजकीय वर्गको प्रसन्न करते हुए,
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