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________________ ११८२ जयोदय-महाकाव्यम् [२३-२४ प्रमितमित्यादि-शमिषु शमधारकेषु यतिषु तन्मनाः संयमधारणेच्छावानज्जयकुमारः स तुजे पुत्राय तस्मायनन्तवीर्यायाजवंजवेऽस्मिन् संसारे नर्महेतवे कल्याणकारणायागदं चौषधमिव नव प्रशंसायोग्यं नूतनं समीचीनस्य नगस्य रत्नस्य दर्शनेनोत्सव इवोत्सवो येन तत्प्रमितमनधिकं वचनं समयच्छद्ददौ । अनुप्रासोऽलंकारः ॥२२॥ अपि केन न वीक्ष्यते रविः शशिनीत्थं वशिनिन्वितो भवी । जनतावनतानसन्दिशो वयमेतद्वयमेचकाः शिशो ! ॥२३॥ अपि केनेत्यादि-हे शिशो ! वत्स ! शृणु रविर्य एकान्तप्रचण्ड: स केनापि न वीक्ष्यते तस्य विशि कोऽपि द्रष्टु नाभिवाञ्छति तथा शशिनि सदा शान्तावस्थे सति भवी शरीरधारी जनः स वशिभिः संयमधारिभिनिन्दितो घृणिताचरणो भवति । वयं तु जन. ताया अवनस्य संरक्षणस्यानन्दस्य च योऽसौ तानो विस्तारस्तस्य सन्दिश: सन्देशवायका भवामस्तस्मादेतयोः सूर्याचन्द्रमसोद येन सम्मिश्रणेन मेचकाः कदाचिदुग्रप्रकृतिषु सूर्यवत्प्रचण्डरूपाः पुनविनीतेषु जनेषु चाह्नादनाकारा भवामः । अनुप्रासोऽलंकारः ॥२३॥ जनतां च तां समाश्वसेः स्वमनस्यम ! नैव विश्वसेः । नटवत् तटवर्तिदृक्तया रहितो हर्षविमर्षसृक्तया ॥२४॥ जनतामित्यादि-हे अम ! निष्पाप ! शृणु, क्वचिदपि हर्षः प्रसन्नभावो विमर्षश्च अर्थ-जिनका मन मुनियोंमें लग रहा था, ऐसे जयकुमारने पुत्र अनन्तवीर्यके लिये संसारमें कल्याण प्राप्तिके उद्देश्यसे समीचीन रत्नके दर्शनके समान आनन्द देनेवाले नवीन औषधके समान हितकारी सीमित वचन प्रदान कियेसंक्षिप्त उपदेश दिया ॥२२॥ अर्थ-हे वत्स ! सूर्य किसीके द्वारा नहीं देखा जाता, अर्थात् तेजस्विताके कारण उसकी ओर कोई नहीं देखता तथा सदा शान्तावस्थामें रहने वाले चन्द्रमाके विषयमें मनुष्य घृणित आचरण वाला हो जाता है, अतः जनताकी रक्षाका सन्देश देनेवाले हमलोग चन्द्रमा और सूर्यके सम्मिश्रण भावको प्राप्त हैं। भावार्थ-जो राजा सूर्यके समान एकान्तसे तेजस्वी रहता है, प्रजा उससे भयभीत रहनेके कारण लाभ नहीं उठा पाती और जो राजा चन्द्रमाके समान सदा शान्त रहता है, उसकी ओर से प्रजा निर्भय हो स्वच्छन्द हो जाती है। यतश्च हमलोग प्रजाकी रक्षाका सन्देश देनेवाले हैं, अतः न तो सर्वथा उग्र नीतिको अपनाते हैं और न अत्यन्त शान्त नीतिको स्वीकृत करते हैं ।।२३।। .. अर्थ-हे निष्पाप ! हर्ष और विषादको रचने वाली दृष्टिसे रहित हो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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