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षड्विंशः सर्गः
कोः पृथिव्या अर्थात् प्रजाया या मुत्तस्या आलम्बनं पक्षे कुमुदानां रात्रिविकासिकसलानामालम्बनं तस्य लम्भनः समाधारोऽभवत् सम्बभूवेत्युपमालंकारः ॥ १३ ॥
सुतरामुत राज्यसम्पदः समिताया: स मुदश्रुसंविदः । जरतीकरतोर्थलम्भितान् भरति स्म द्रुतमक्षतान् हितान् ॥१४॥ सुतरामित्यादि - उताथत्रा सुतरां स्वत एव समितायाः समागताया राज्य सम्पदो मुदो हर्षस्याणि नयनजलानि तेषां संविदो बुद्धयो यत्र तान् जरतीनां वृद्धानां करावेव तीर्थं तेन लम्भितान्दत एवं हितान्मङ्गलकरानक्षतान् द्रुतमेव भरति स्माङ्गीचकारेत्युत्प्रेक्षा ॥ १४ ॥
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समभान्मृदु केशलक्षणं प्रति राहुं हसदाप्रदक्षिणम् । शशिबिम्बमिवातपत्रकं भवतः प्राभवतः किलानकम् ॥ १५ ॥
समभादित्यादि - मृदुकेशनिवेशं नाम राहु प्रति आप्रदक्षिणं घूर्णमानतया हसत् तदातपत्रं छत्रं भवतस्तस्य प्रभोर्भावः प्राभवं प्रभुत्वं ततः किलानकं निरुपद्रवं शशिनो बिम्बमिव समभात् सम्बभौ किलेत्युत्प्रेक्षालंकारः ॥ १५ ॥ ॥
सुरसिन्धुर सिञ्चदेव तं नृपतोनामवतीर्य प्रतिपन्नवतीवसम्मदाद्विलसच्चा मलसम्पदः
तत्स्थ प्रजा हर्षके आधार ( पक्ष में रात्रिविकासी कमलोंके विकासके आधार ) हुए थे ।।१३।।
अर्थ – जो स्वयं प्राप्त हुई राज्यलक्ष्मी के हर्षाश्रुओंके समान जान पड़ते थे, . ऐसे वृद्धा स्त्रियों के हस्तरूपी तीर्थसे प्राप्त हितकारी अक्षतोंको राजा अनन्तवीर्य - अच्छी तरह स्वीकृत किया ।
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दैवतम् । पदात् ॥१६॥
भावार्थ -- वृद्धा स्त्रियोंने अपने हाथोंसे उनपर आशीर्वादात्मक अक्षतवर्षाये ॥ १४ ॥
अर्थ - जो प्रत्येक प्रदक्षिणा में कोमलकेश नामक राहुकी मानों हँसी कर रहा था तथा उत्पन्न होने वाले प्रभुत्वसे जो निरुपद्रव था, ऐसा उनका छत्र चन्द्रबिम्बके समान जान पड़ता था ।
भावार्थ - राजा अनन्तवीर्य के मस्तकपर जो श्वेत छत्र लगाया गया था, वह उस चन्द्रबिम्बके समान जान पड़ता था जो अपने प्रतिद्वन्द्वी राहुको मानों हँसी ही उड़ा रहा है। यहां काले केशोंमें राहुका आरोप किया गया है ॥ १५ ॥
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