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जयोदय- महाकाव्यम्
[ ६-७
स्माकं प्रजाजनानामकजित् पापापहारो दुःखापहारी वा योऽसौ स्नेहगुणस्तै लानु योगेनानुराग एव ततां विस्तृतामनन्त तामविनश्वरतां लभतामिति संव्रजेदित्यद इदं व्यभावि स्पष्टीकृतम् । इत्युत्प्रेक्षा ॥ ५ ॥
लसतालसता त्वदाश्रिते विषता संविशता तथा जिते । यदुपेत्यत रामवातरन्न किमुद्वर्तनमित्युदाहरत् ॥ ६ ॥
लसतादित्यादि - यदुद्वर्तनं नृपस्य भाविनो राज्ञः शरीरमुपेत्यत रामवातरत्तत्पुनर्हे प्रभो ! त्वदाश्रिते जने लसता सुभगता लसतात् सम्भवेत् तथा त्वया जिते पराजिते पुसि विषतानुपयोगिता संविशतोपपद्येतेति किन्नोदाहरदपि तु जगावैवेति वक्रोक्ति• रनुप्रासश्च ॥ ६॥
सहते सह तेजसा स्थितः कुत एतन्मलिनत्वमित्यतः । कचसन्निचयस्तमस्तुतः समभादुत्तमभावितः स्तुतः ॥७॥
सहत इत्यादि - अयं तेजसा सह स्थितोऽपि किलास्माकमेतत्सहजप्रसिद्धं मलिनत्वं कृष्णवर्णत्वमुत मलयुक्तत्वं कुतः सहते, किन्तु नैवमित्यत एव किल कचानां केशानां सन्नियः समूहो यस्तमस्तुतस्तम इवान्धकार इव स्तुतः श्यामवर्णः सोऽप्युत्तमभावतस्तदा फेनिलनामकेनोत्तमेन स्वच्छेन भावेन स्तुत समभावित्युत्प्रेक्षालंकारः ॥७॥
जीतने वाला आपका स्नेह - अनुराग अत्यन्त विस्तृत अनन्तता - अविनश्वरताको प्राप्त हो, अर्थात् हम लोगोंके परिपालनमें सदा आपका स्नेह - अनुराग - प्रीतिभाव निरन्तर वृद्धिको प्राप्त होता रहे ||५||
अर्थ - उस समय भावी राजाके शरीरमें जो अच्छी तरह उद्वर्तन - उपटन लगाया गया था, वह क्या यह नहीं कह रहा था कि हे राजन् ! जो मनुष्य आपके आश्रित लसता - सुन्दरता सुशोभित हो और आपके द्वारा जो पराजित है, उसमें विषता - अनुपयोगिता अर्थात् विषरूपता समुपपन्न हो ||६||
अर्थ-भावी राजाके मस्तक सम्बन्धी केशों का समूह फेनिल- रीठासे धोया गया था । उससे वह ऐसा जान पड़ता था मानों उसने विचार किया हो कि यह राजा तो सहज स्वाभाविक तेजसे सहित है, पर इसके आश्रित रहने वाले मुझे अन्धकारतुल्य केशसमूहमें मलिनता - श्यामलता अथवा मलिनता क्यों है ? यह विचार कर ही मानों वह उत्तमभाव मलिनताको नष्ट करने वाले पदार्थ से अच्छी तरह उज्ज्वल किया गया था ||७||
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