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________________ ७८-८०] पञ्चविंशतितमः सर्गः ११६९ स दिवसः समयः स मयाञ्चितः सपदि सोऽहमपीतिकथाश्रितः । उपहतः पुनरुक्तपरिश्रमैरररवत् प्रभवामि वृथाक्रमैः ॥७८॥ _____स दिवस इत्यादि-स एव तु दिवसः स एव समयः प्रातःकालादिरूपो यो मया पूर्वमञ्चितः समुपभुक्तस्तथा सपवीतिकथया बाधाकारकवार्तयाश्रितोऽहमपि स एव तथापि वृथाक्रमोऽनुवर्तनं येषां ते: पुनरुक्तपरिश्रमरुपहतोऽपि अररवत् कपाटवत् प्रभवामि । अनुप्रासश्चोपमालंकारः ॥७॥ नहि कृतं मदनारिक माजनुः स्मृतमहो न जिनेन्द्रपदं ननु । युवतिमावकर्दमकेवितं किमु कथेयमयो भसदोऽग्रतः ॥७९॥ ____नहीत्यादि-अहो मयाऽऽजनुर्जन्मन आरभ्याद्यावधि मदनारिकं कामवासनाविरोधि किमपि न हि कृतम्, जिनेन्द्रस्य पदं चरणद्वन्द्वं ननु नियमेन न स्मृतं तस्य सामीप्यमपि न स्मृतम्, केवलं युवतीनां मार्दवं कोमलत्वमेव कर्दमः स एव कर्दमकं तस्मिन्नेवादितं प्रार्थितं ततो भसदः कालस्य यमराजस्यानतोऽथो किमु वदेयमिति काकूक्तिः । 'कथ' इति भौवादिको धातुर्यस्य लुङि ण्यन्ते 'अचीकथत्' इति रूपं जैनकाव्येषु प्रचलितम्, 'अचीकथच्च मन्त्रिभ्यो' इति वादोसिंहेन क्षत्रचूडामणौ प्रयुक्तम् ॥७९॥ स्मरशरासरसाशयितान्विता नियमिता वमिता भ्रमिता मिता। जडतयापि तथापि तु चिन्तया किमधुना समये च शिवं रयात् ।।८०॥ अर्थ-वही दिन है, मेरे द्वारा उपयुक्त वही समय है और कथाओंका आश्रयभूत मैं भी वही हूँ, फिर भी व्यर्थ क्रमसे युक्त पुनरुक्त परिश्रमों-विषयोंकी प्रवृत्तिसे उपहत होता हुआ किवाड़के समान बन रहा हूँ, अर्थात् सद्विचारोंके प्रवेशके लिये बाधक हो रहा हूँ। भावार्थ-आकर्षणके लिये उपभोग्य और उपभोक्तामें नूतनता आवश्यक होती है, पर यहाँ नूतनता कुछ भी नहीं है । फिर भी विषयोंमें मेरा आकर्षण कम नहीं हो रहा है, यह आश्चर्यकी बात है ।।७८।। अर्थ-आश्चर्य है कि मैंने जन्मसे लेकर आजतक कामवासनाका विरोधी कुछ भी कार्य नहीं किया, न जिनेन्द्रदेवके चरण युगलका स्मरण किया, मात्र स्त्रियोंकी कोमलतारूपी कीचड़की चाह-करता रहा अथवा उसमें फंसकर पीड़ित होता रहा, अब मैं यमराजके आगे क्या कहूँगा ? विशेष—यमराजकी कल्पना लौकिक है, जिनागममें ऐसे यमराजका कोई उल्लेख नहीं है। वहाँ मरणको ही यमराज कहा गया है ॥७९|| Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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