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________________ ११६८ जयोदय-महाकाव्यम् [७६-७७ विषयजेत्यादि-मयापि गतधिया बुद्धिहीनेन विषयेभ्यो जायते योऽतिशयो विशेष: स एवाश्रयो विश्रामस्थानं यस्यैतादृग्धद्वता सतेदं जनुर्मानवजन्मापार्थतां व्यर्थभावना नीतं ननु निश्चयेन व्ययीकृतमास्ते । यतः श्रियां लक्ष्मीणां समय आधारभूतो मणिः स. मुकुरेण पणयितो विक्रीतो रयात् किमपि विचारमकृत्वा । अनुप्रासोऽलंकारः ॥७५॥ श्रुतमधीत्य यथाविधि बुद्धिमान् समधिगम्य च साधुसमागमम् । जगदुदीक्ष्य च भगुरमुह्यतां मदपरः क इवेह विमुह्यताम् ॥७६।। श्रुतमित्यादि-मत्तोऽपरो मदपरः क इव बुद्धिमान् यो यथाविधि श्रुतं शास्त्रमधोत्य साधुसमागमं साधूनां सज्जनानां सम्पर्क यद्वा साधुश्चासौ समागमश्च तं समुचितसम्प्रयोगं समधिगम्य चेदं जगच्च भगुरं नश्वरमुदीक्ष्य दृष्ट्वा पुनरपीह विमुह्यतां मोहं गच्छेदित्यूह्यतां विचार्यतां तावत् ॥७६।। अनवयन्दहनं शलभोऽतति बडिशमांसमितश्च झषोऽमतिः । न विषयान् गहनाँश्च सुचिन्निधिस्त्यजति मादृगहो निबिडो विधिः ।७७॥ अनवयन्नित्यादि-य: शलभः पतङ्गः स तु दहनं दग्धकरमनवयन्नजानन् एवातति संगच्छति । झषो मीनोऽपि यो बडिशस्य मांसं लोहकण्टकेन सह लग्नं पलमितः सम्प्राप्तः स चामतिर्बुद्धिरहित एव, किन्तु सुचिन्निधिः सम्यग्बुद्धिधरोऽपि सन् विषयान् गहनान् कष्टकराँश्च जानन् पुनरपि मादृड्नरस्तान् न त्यजति तावविति विधिः पुराकृतप्रणिधिः सन्निबिड एवाहो ॥७७॥ अर्थ-विषयजन्य विशेष सुखका आश्रय करने वाले हृदयसे युक्त मुझ जयकुमारने भी निर्बुद्धि हो इस मानव जन्मको व्यर्थ खो दिया है। मैंने लक्ष्मीके आधारभूत मणिको कुछ विचार किये बिना ही मुकुर (काच) में बेंच दिया है॥७५॥ अर्थ-मुझसे भिन्न दूसरा कौन बुद्धिमान् होगा जो विधिपूर्वक शास्त्र पढ़ कर, साधु समागम-साधुओंका समागम अथवा समुचित सम्प्रयोग प्राप्त कर और जगत्को नश्वर देखकर भी विमोहको प्राप्त होगा? विचार किया जावे ॥७६॥ - अर्थ-पतङ्ग अग्निके पास जाता है, पर वह उसे दहन-जलाने वाली न जानकर जाता है । इसी प्रकार मछली वंशीमें लगे हुए मांसको प्राप्त होती है, पर वह अमति-बुद्धिसे रहित है। परन्तु ज्ञानदर्शनरूप चेतनाका भाण्डार होकर भी मेरा जैसा मनुष्य इन गहन विषयोंको नहीं छोड़ रहा है, इससे आश्चर्य है कि मेरा कर्म बहुत सान्द्र-मजबूत है ॥७७।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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