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७३-७५] पञ्चविंशतितमः सर्गः
११६७ तवितरस्य तु कस्यचिन्मनो हितं श्रुत्वापि तत्र संशयितं भवति बोलायत एव किं करोमि किन करोमीति ? ततः परं पुनविपरीतया रचाऽभिलाषया धृतमये पश्यामि, एवमिद सकलं जगत्तमसाज्ञानेनाऽऽवृतं तिष्ठति ॥७२॥ वयनकोटवदास्मनि वेष्टितैविपदमेति जनो निजचेष्टितैः । प्रभवतीह हितैरिमजितैर्जगति मत्कुणवम्रियते न तैः ।।७३॥
· वयनकोटवदित्यादि-आत्मनि वेष्टितैर्वयनकोटवद् ऊर्णनाभ इवायं जन्गेऽपि निजचेष्टितैरेव विपदमेति जगतीह इमकैनितः व्यतीतैः पुनहितैः प्रभवति हितमाप्त्या समर्थो भवति, किन्तु तैमत्कुणवन्न म्रियते ॥७३॥ सदपि मल्लमहावपि युद्धघतोर्भवति दीपकजीवसमन्वितः । लगति तस्य तनौ हि रजः कुजं तदितरो विलसत्यपि केवलः ॥७४॥ ___सपदोत्यादि-सपदि साम्प्रतं मल्लमही व्यायामभूमौ महिशब्दो ह्रस्वकारान्तोऽपि कविभिः सम्मतोऽस्ति, धरणिशब्दवत् । युद्धघतोयुद्धं कुर्वतोर्यः कोऽपि दीपकजीवेन स्नेहेन समन्वितो भवति तस्यैव तनौ शरीरे हि कुजं रजो भूमिगतपांसुर्लगति तदितरो यः स्नेहेन वजितः स केवल एवापि विलसति ॥७४॥ विषयजातिशयायिहद्वता जनुरिदं ननु नीतमपार्थताम् । गतधियापि मया समयः श्रियां पणयितो मुकुरेण मणी रयात् ॥७५॥
किसीका मन संशयसे युक्त है-वह निर्णय नहीं कर पाता कि क्या करूँ क्या न करूँ और कोई अन्य मनुष्य विपरीत बुद्धिसे आक्रान्त है। इस प्रकार यह समस्त जगत् अज्ञानसे आवृत हो रहा है ।।७२।।
अर्थ-जिस प्रकार मकड़ी अपने ही वेष्टनसे वेष्टित हो विपत्तिको प्राप्त होती है, उसी प्रकार यह जीव अपनी ही चेष्टाओंसे विपत्तिको प्राप्त होता है। कोई जीव अपनी भूतकालीन हितकारी चेष्टाओंसे प्रभुत्वयुक्त होता है, उनसे खटमलके समान मृत्युको प्राप्त नहीं होता ॥७३॥
अर्थ-एक साथ दो मल्ल अखाड़ेमें युद्ध कर रहे हैं-कुश्ती खेल रहे हैं । उनमेंसे एक मल्ल तैलसे सहित है-शरीरमें तैल लगाये हुए है और दूसरा तैलसे रहित है। जिसके शरीरमें तैल लग रहा है उसके शरीरमें पृथिवीकी धूलि-अखाड़ेकी मिट्टी लग जाती है. पर जो तैलसे रहित होता है वह अकेला ही सुशोभित होता है। तात्पर्य यह है कि रागभाव हो बन्धका कारण है और विरागभाव निर्जराका कारण है ||७४||
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