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________________ जयोदय-महाकाव्यम् [६६-६७ वृषलपालित इत्यादि-दासस्य सुतयोर्मध्ये किलैकस्तु स्वयं वृषलेन दासेन पालितः पोषितः स आसवं मद्यं प्रसन्नतयाश्नुते पिबति, किन्त्वन्यो द्विजमितो विप्रस्य समीपं गतः स आसवं त्यजति ततो दूरं व्रजतीत्येवोपसंश्रुतेः सद्भावात् । किन्तु सुदृशां दृशि दृष्टौ तु तावुभौ दाससुतावेवेति तथैव शुभाशुभौ योगावपि निगदितौ स्तः ॥६५॥ रजक एष गुणी स्वगुणाम्बरं समरसेन रसेन सता वरम् । झगिति धावति नावति कश्मलं ननु विवेकमुपेत्य सुफेनिलम् ॥६६॥ रजक इत्यादि-एष गुणी जीवो रजको वस्त्रसंक्षालकः स समरसेन किलेष्टानिष्टयोस्तुल्यभावेनैव सता पवित्रेण रसेन जलेन वरं श्रेष्ठं स्वगुणाम्बरं स्वाधीनगुणरूपं वस्त्रं झगिति शीघ्रमेव धावति प्रक्षालयति कश्मलं नाम मलं नावति न द्रष्टुमीहते विवेक नामोचितानुचितयोर्यज्ज्ञानं तदेव सुफेनिलं सम्यक्तया मलापहरणं द्रव्यं तरिवमुपेत्य समुपलभ्येति रूपकोऽलं कारः ॥६६॥ अयि विवेकितयैव वसेर्मन इह च कि वसतोऽपि विपत्पुनः । किमुत गारुडिनो विलसन्मते जगभुक्तमपोति विषायते ॥६७॥ अयीत्यादि--अयि मनस्त्वं विवेकितयव निर्मलभावेनेव वसेनिवासं गच्छेः । पुनरिहापि अर्थ-किसी शूद्रा दासीके दो पुत्र हुए, उनमें एकका पालन उसीके घर हुआ और दूसरा ब्राह्मणके घर पाला गया । दासीके घर जिसका पालन हुआ था वह मदिराका सेवन करता है और जिसका पालन ब्राह्मणके घर हुआ था वह मदिरा को छोड़कर उससे दूर रहता है । दो पुत्रोंका आचरण दो प्रकारका अवश्य है परन्तु सम्यग्दृष्टियोंकी दृष्टिमें दासीके पुत्र होनेसे शूद्र दोनों हैं । इसी प्रकार शुभ और अशुभ दोनों मोहजन्य होनेसे आनवके ही कारण माने गये हैं। यही भाव आचार्य अमृतचन्द्रने टिप्पणगत 'श्लोकमें प्रकट किया है ॥६५॥ ___ अर्थ-यह गुणी मनुष्य एक धोबी है, जो समताभावरूपी पवित्र जलसे अपने गुणरूपी वस्त्रको शीघ्र ही धोता है। वह मेलकी रक्षा नहीं करता ओर विवेकरूपी उत्तम साबुनको लेकर गुणरूपी वस्त्र धोता है ॥६६।।। अर्थ--हे मन ! तू निर्मल भावसे ही निवास कर, इस निर्मल भावमें निवास १. एको दूरात्यजति मदिरां ब्राह्मणत्वाभिमाना ___ दन्यः शूद्रः स्वयमहमिति स्नाति नित्यं तयैव । द्वावप्येतो युगपदुदरान्निर्गती शूद्रिकायाः शृद्रौ साक्षादथ च चरतो जातिभेदभ्र मेण ॥१०१॥ -नाटके समयसारेऽमृतचन्द्रस्य सूरेः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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