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________________ ११६२ जयोदय-महाकाव्यम् [६०-६२ सपदि मन्थ इतः प्रतिमन्थिनि भ्रमति तद्ववयं जगदध्वनि । अरुणतो गुणतः स्वयमात्मनः विरम भो विरमेति मनः कुतः ॥६॥ सपदीत्यादि-मन्थो दधिविनोडनदण्डः स इतो मन्थिनी वधिपातिनों प्रति प्रतिमन्थिनि अरुणतो गुणतो व्याकुलेन गुणेन सपदि सपदि साम्प्रतं भ्रमति, तद्वदेवायं संसारिजनोऽपि जगदध्वनि संसारस्य वम नि स्वयमात्मन एवारुणतो गुणतो रागभावत एव. भ्रमति ततः पुनरधुना भो मनो विरमाशु बिरम तूष्णींभव । 'नीरवारक्त कपिल व्याकुलेष्वरुणोऽन्यवदिति विश्वलोचने ।।६०॥ सुखमवैति तु नात्मगुणं जडो बहु परेषु परं प्रतिपद्यते । अविदितात्मगतोत्तमसौरभो मृगवरः परितोऽपि विपद्यते ॥६१॥ सुखमित्यादि-जडो मन्वबुद्धिर्जनः सुखमात्मगुणं स्वभावं तु नावैति जानाति परेषु विषयेषु स्पर्शरसादिषु परं केवलं तत् प्रतिपद्यते मनुते, यथाऽविदितो न परिज्ञात आत्मनि शरीरे गतः समुत्पन्नो य उत्तम: सौरभो गन्धो येन स मृगवरः परित इतस्ततः सर्वतोऽपि विपद्यते कष्टमनुभवति । दृष्टान्तोऽलंकारः ।।६१॥ बहिरमीष्वसमेषु विकारतः परिचयं रचयन्नविचारतः। न परमात्मपथे रतिमेत्ययं रस इयान रसतिः किमपि स्वयम् ॥६२॥ बहिरित्यादि-किमपि स्वयमेवेयान् रसोऽनिर्वचनीयो रसित आस्वादितोऽस्ति येनायं संसारी विकारतः कारणादविचारत उचितानुचितस्य विचारमकृत्वा बहिरमोषु कि आत्मबोधके बिना राजाधिराज पदका प्राप्त होना भी कार्यकारी नहीं है ॥५९॥ अर्थ-जिस प्रकार मन्थनदण्ड उसमें लगो रस्सीसे प्रेरित हो मन्थन करने वाली स्त्रीकी ओर भ्रमण करता है उसी प्रकार यह जीव अपनी रागरूपी रस्सीसे प्रेरित होता हुआ संसारके मार्गमें स्वयं भ्रमण करता है । हे मन! तू उस ओरसे शीघ्र ही विरत हो ॥६॥ अर्थ-यह मन्दबुद्धि जीव सुखको आत्माका स्वभाव नहीं जानता किन्तु स्पर्श-रस आदि पर-पदार्थों में सुख है ऐसा मानता है। जिस प्रकार अपने शरीर में विद्यमान उत्तम सुगन्धको न जानकर कस्तुरीमृग इधर उधर कष्टका अनुभव करता है, उसी प्रकार यह जीव अपनी आत्मामें विद्यमान सुखको न जानकर पर-पदार्थों में सुखको खोजता हुआ दुःखी होता है ॥६१॥ __ अर्थ-इस जीवने इतना रसका आस्वादन किया है कि तज्जनित विकारसे Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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