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जयोदय- महाकाव्यम्
[ ५५-५६
यदपीत्यादि - अस्मिन् भूमितले यदपि तुषस्य कण्डनं दूरीकरणं तदपि सम्प्रति सर्वथा तण्डुलस्य मण्डनमेव भवति, तदिव जडस्य चेतनत्वशून्यस्य पिण्डस्य शरीरस्य विवेचनं पृथक्करणमस्ति । तत्सुखवत आत्मनोऽखण्डनिवेदनमेव प्रत्युत सदुपयोगायैवेति स एव दृष्टान्तोऽलंकारः ॥५४॥
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यदपि चेतनको गहनं श्रयत्यहह विग्रहसंग्रहतो ह्ययम् । घनविघातमुपैति तनूनपात् विकमयसाभिगमस्य न चेत्कृपा || ५५ ||
यदपीत्यादि - अयं चेतनको ज्ञानवानात्मा यदपि गहनं दुःखं श्रयति संलभते तत्सवं विग्रहस्याङ्गस्य संग्रहतो हि न चान्यथा । तनूनपादग्निर्नाम स चेद्यदि पुनरयसा लोहेन सहाभिगमस्य सभागमस्य कृपा न भवेत्, तदा घनस्य विघातमुपैति किम् ? किन्तु नोपैति । तथेति दृष्टान्तोऽलंकारः ॥५५॥
वसति यावदयं खलु चतनस्तनुरियं घृणितापि हरेन्मनः । मृगमदाभिपदा किल कूपिकाऽन्तसमये तु समस्तु दशा हि का ॥ ५६ ॥
वसतीत्यादि - यावदयं खलु चेतनोऽत्र तनौ वसति तिष्ठति तावदियं मांसमज्जादि· रूपा घृणितापि सतो मनश्चितं हरेत् । यथा किल मृगमवस्य कस्तूरिकाया अभिपदं संस्थान यस्यां सा कूपिका चर्मरूपापि तु पुनरन्तसमये चेतनस्यात्मनोऽभावे काऽस्या दशात्र स्याद्वीति चिन्त्यताम् स एव दृष्टान्तोऽलंकारः ॥ ५६ ॥
अर्थ – इस भूमिपर तुषका दूर करना जिस प्रकार चांवलको विभूषित करने वाला है, उसी प्रकार जड़-चेतनतारहित शरीरका पृथक् होना सुखसम्पन्न आत्माकी अखण्डताको सूचित करने वाला है ॥५४॥
अर्थ - यह ज्ञानवान् आत्मा जो दुःख उठाता है वह शरीरके ग्रहणसे ही उठाता है, जैसे अग्नि जो घनोंके प्रहारको प्राप्त होती है वह यदि उसका लोहके साथ समागमकी कृपा न होती तो क्या प्राप्त होती ? अर्थात् नहीं ।
भावार्थ -- जिस प्रकार लोहकी संगतिसे अग्नि घनोंके प्रहार सहन करती है, इसी प्रकार यह जीव भी विग्रह- शरीरको संगतिसे अनेक दुःख सहन करता है ॥५५॥
अर्थ - जब तक यह चेतन - आत्मा शरीरमें निवास करता है, तभी तक यह शरीर घृणित होनेपर भी मनको हरण करता है । कस्तूरिकासे सुशोभित इस शरीरकी अन्त समयमें क्या दशा होती है ? अर्थात् आत्माके बिना शरीरकी समस्त प्रभुता नष्ट हो जाती है ||२६||
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