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________________ पञ्चविंशतितमः सर्गः ५२-५४] ११५९ मिव पृथगञ्चति प्रभवति तु पुनः केवलं बालिशो मन्दबुद्धिरेव सोऽनयोरात्मशरीरयोः परस्परसंदिशोऽन्योन्यानुप्रवेशभावाननवबुध्य स्खलतु द्वयोरैक्यं स एव वदतु । 'विट पुंसि वैश्ये मनुजे प्रवेशे तु पुनः स्त्रियाम्' इति विश्वलोचने ॥५१॥ वसु रजोगुणको रजसोऽऽचति पय इवाथ जलाद्वरटापतिः । विभजते जडतः खलु चेतनमिति विवेकबलादसकौ जनः ॥५२॥ वस्वित्यादि-रजोगुणको रजसः संशोधको जनः स रजसो वसु धनं सुवर्णादिकम्, वरटापतिहंसः स जलात् पयो दुग्धमिवाञ्चति पृथग् लभते । तथैवासावेवासको जनः खलु बडतः शरीराच्चेतनमात्मानं विवेकबलाद्विभजते पृथग जानातीति किलोपमालंकारः ॥५२॥ न खलु कन्चुकमुञ्चनतः क्षतिरहिवरस्य भवत्यपि सन्मतिः । स च सुखेशमखण्डसुखो वहेत्तदिव विग्रहभारविनिग्रहे ॥५३॥ ___ न खल्वित्यादि-यथा कञ्चुकस्य मुञ्चनतस्त्यागादहिवरस्य सर्पराजस्य कापि अतिर्हानिर्न भवति, तदिव तथैव योऽपि सन्मतिः सुबुद्धिः स च विग्रहभारस्य विनिग्रहे शरीरस्य विनाशे सति च न खण्डघते सुखं यस्य सोऽखण्डसुखस्सन् सुखेशमात्मानं वहेत् स्वीकुर्यादिति दृष्टान्तोऽलंकारः ॥५३॥ यदपि भूमितले तुषकण्डनं तदपि सम्प्रति तण्डुलमण्डनम् । तदिव वा जडपिण्डविवेचनं सुखवतस्तदखण्डनिवेदनम् ॥५४॥ उसी प्रकार शरीरसे आत्माको पृथक् जानता है। शरीर और आत्माके परस्पर प्रवेशको न जानकर केवल अज्ञानी जीव ही स्खलित होता है-दोनोंको एक कहता है ॥५१॥ ___अर्थ-जिस प्रकार रजधोवा रजसे स्वर्णादि धनको और हंस जलसे दूधको पृथक् जानता है, उसी प्रकार यह ज्ञानी जोव जड-शरीरसे चेतन-आत्माको पृथक् जानता है ॥५२॥ अर्थ-जिस प्रकार कांचलीके छोड़नेसे सर्पराजकी कोई हानि नहीं होती, उसी प्रकार जो सद्बुद्धि-विचारवान् मनुष्य है वह शरीरका विनाश होनेपर अखण्ड-सुखका धारक रहता हुआ आत्माको स्वीकृत करता है। भावार्थ-जिस प्रकार कांचलीके छोड़नेपर सांप दुःखका अनुभव नहीं करता, उसी प्रकार ज्ञानी जीव शरीरके छूटनेपर दुःखका अनुभव नहीं करता, क्योंकि वह सुखसे तन्मय आत्माको शरीरसे पृथक् अनुभव करता है ॥५३।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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