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११५८ जयोदय-महाकाव्यम्
[ ४९-५१ सुविधुरा विकलाः सन्ति । तत्र कवर्थनमन्यथात्वं किमियाक्षिप त्वं कुरु ? न किमपीति किल । वक्रोक्तिरलंकारः ॥४८॥ तनयवत्त्वनयोऽरमनुव्रजत्यपि बुधेश विधिश्च यदात्मजः । परिनिमन्त्रितभूतवदेतकं प्रतिचरत्यपि नो भुवने स कः ॥४९॥ ___तनयेत्यादि-अयि बुधेश ! विधिस्तु यद्यप्यनयोऽस्त्यविशेषज्ञश्च पुनस्तथापि तनयवच्छिशुरिव यदात्मजो भवति तमेवारमनुव्रजति । अपि पुन: परिनिमन्त्रितस्समाहूतस्चासौ भूतः परेतस्तद्वत् फिलैतकमेनमतिचरति सोऽपि भुवनेऽस्मिन् संसारे कोऽस्ति भोः ? न कोऽपोति । उपमालंकारः ॥४९॥ तनरनन्यतयाऽनगतादरिन्नपि न चेत परलोकमपेतरि । समितिमेति कुतोऽथ परिच्छदे समुपपत्तिमहो विबुधो ववेत् ॥५०॥
तनुरित्यादि-हे आदरिन् विनयशील ! परलोकमुपेतरि जने याऽनन्यतया भेदाभावरूपेणाऽनुगतापरिच्छिन्ना सा तनुरपि चेदि समिति सह गमनं नैति तदाथ पुनर्यो विबुधो विचारशीलोऽस्ति स परिच्छदे पुत्रपौत्रादौ समुपपत्तिमहं सहगमनोत्सवं कुतो वदेदपि तु न कथमपि ॥५०॥ पृथगिवाञ्चति कोशत आयुधममुकतः खलु विग्रहतो बुधः । अनवबुध्य परस्परसंविशः स्खलतु केवलमेव तु बालिशः ॥५१॥ पृथगित्यादि-बुधो विचारवान्नरः सोऽमुकतः खलु विग्रहतः शरीरात्कोशादायुध
हैं, इसमें अन्यथा करनेकी क्या बात है ? अर्थात् कुछ नहीं ॥४८॥ ___अर्थ-हे बुधेश ! हे श्रेष्ठज्ञानी जन । यद्यपि विधि-दैव-कर्मोदय अनय हैविशेष ज्ञानसे रहित हैं अर्थात् विपरीत प्रवृत्ति करने वाला है, फिर भी वह शिशुके समान पीछे लगा रहता है, न चाहनेपर भी वह साथ छोड़ता नहीं है, क्योंकि आत्मज-पुत्र निमन्त्रित भूतके समान साथ लगा रहता है जगत्में जो उसका प्रतिकार करे वह कौन है ? अर्थात् कोई नहीं है । तात्पर्य यह है कि स्वकृत कर्म इस जीवके पीछे लगा ही रहता है ।।४९।। __ अर्थ-अभिन्न रूपसे सदा साथ रहने वाला शरीर भी जब परलोकको प्राप्त होनेपर साथ नहीं जाता है-यही छूट जाता है, तब अन्य पुत्रपौत्रादि परिकरके विषयमें कौन विद्वान् कह सकता है कि साथ रहेंगे ? अर्थात् कोई नहीं ॥५०॥
अर्थ-जिस प्रकार विचारवान् मनुष्य म्यानसे शस्त्रको पृथक् जानता है,
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