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________________ जयोदय- महाकाव्यम् [ ४४-५५ दितस्वशक्तिरपि च तृष्णया विषयाभिलाषया तरुणोऽदितो भ्रमणमेतु जन्ममरणाधीन भवतु न तु सुखमवाप्नोतु । अपि तु यथा हरिणो मृगः स मरीचिकाया मृगतृष्णाया विवरणे जातु च किञ्चिदपि वीचिकां जलस्य किलांशमपि किमु यातु किन्तु नैवेति । दृष्टान्तोऽलंकारः ॥४३॥ ११५६ पिहितदृष्टिरसौ परतन्त्रितः सपदि मर्मणि दण्डनियन्त्रितः । बहुभरं भ्रमतीत्थमथोद्धरन् जगति तैलिकगौरिव हा नरः || ४४| पिहितदृष्टिरित्यादि - अथासौ नर इत्युपलक्षणात्संसारी तैलिकस्य गौरिवास्ति यतोऽसौ पिहितदृष्टिविचारशक्तिरहितः पक्षे छादितनेत्रः परतन्त्रितः परेण स्वार्जित - कर्मणा तैलिकेन वा तन्त्रितो वशीकृतस्तत एव बहुभारं परिग्रहात्मकं वा पाषाणाय बोद्धरन् सपदि साम्प्रतं मर्मणि दण्डेन पापाचारेण लगुडेन वा नियन्त्रितः प्रपीडितो जगतीत्थं भ्रमति । हा कष्टानुभवने । उपमालंकारः ॥४४॥ ननु सहस्वगुणिन् सहसा स्वयं किमु विलक्षतया व्रजताज्जयम् । ननु पुराकृतमेतदुदीरितं नहि परन्तु कदापि लभे हितम् ||४५ ॥ नन्वित्यादिद- अत्र स्वकृत कर्म फलसहने कातरं लक्ष्यीकृत्योच्यते - हे गुणिन् ! विलक्षता कातरभावेन किमु जयं व्रजतात् ? किन्तु नैव । अतः सहसा साहसेन स्वयं सहस्वततवैव पुराकृतमुदीरित मुदयागतमस्ति । ततस्त्वया सोढध्यमस्ति नेहाहं कमपि परं हितं सहायं कदापि लभे । हीति निश्चये, ननु वितकें ॥ ४५ ॥ भले ही भ्रमण करता रहे, परन्तु कभी मृणमरीचिका विवरणमें क्या मृग कभी प्राप्त करता है ? अर्थात् नहीं ||४३|| सुखको प्राप्त नहीं होता । ठीक ही है, जलकी एक तरंगको भी- अंशको भी अर्थ - जिसकी आँखें पट्टीसे ढक दी गई हैं, जो तेलीके पराधीन है, रुक जानेपर जिसके मर्म स्थान में डण्डासे चोट पहुँचाई जाती है और जो पत्थर आदिका बहुत भारी भार लादे हुए है, ऐसा तेलीका बैल जिस प्रकार निरन्तर घूमता रहता है, चक्कर लगाता रहता है, उसी प्रकार जिसकी विचारशक्ति आच्छादित है, जो स्वोपार्जित कर्मके अधीन है, पापाचाररूपी दण्डसे मर्म स्थानमें आघातको प्राप्त हो रहा है और परिग्रहरूप बहुत भारी भारको धारण कर रहा है, ऐसा मनुष्य खेद है कि संसार में परिभ्रमण करता रहता है ||४४ || अर्थ - हे गुणिन् ! विचारशील प्राणिन् ! तू स्वकृत कर्मका फल साहस पूर्वक सहनकर, व्याकुल होनेसे इसपर क्या तू विजयको प्राप्त कर सकेगा ? नहीं | तूंने पहले जो किया था वही तो उदयमें आया है। इस विषय में मैं किसी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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