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________________ ४१-४३ ] पञ्चविंशतितमः सर्गः ११५५ मनु मनोरथपूर्तिपरायणः सपुलकः कदलीवलजालवत् । विकलयन् कलनानि भवस्य वा परिभवं परमेति किलाङ्गभूत् ।।४।। नन्वित्यादि-मनोरथस्य स्ववाञ्छितस्य पूर्ती समुपलब्धौ परायणस्तल्लीनः सन् सपुलकः पुलकितगात्रः किलायमङ्गभृत् कदल्या रम्भाया दलानां पत्राणां जालवद् भवस्य स्वजन्मनः कलनानि बन्धनानि विकलयन समनुभुजानः परं परिभवं प्रतारणमेति प्राप्नोति ॥४१॥ चतुरशीतिगुणाङ्कितलक्षणेऽत्र तु चतुष्पथके विचरन् क्षणे। जनिमुतैति मृति दुरिताक्षतः• न पुनरेति परं पदमुद्धतः ॥४२॥ चतुरशीतीत्यादि-चतुरशीतिसंख्याकैर्गुणैरङ्कितं लक्षणं यस्य तस्मिन्नत्र चतुष्पथके चत्वारः पन्थानो यस्य नरकगत्यावयो भवन्ति तस्मिन् क्षणे काले समुत्सवे वा सर्वस्मिन्नेव विचरन् पर्यटन् दुरितानि दुश्चेष्टितानि यान्यक्षाणि पञ्चापीन्द्रियाणि तेभ्यस्ततस्तथा दुरिता येऽक्षाः पाशकास्तेभ्यस्तत उद्धतः सन् जनि जन्म मृति मरणमुपैति प्राप्नोति, किन्तु परं मुक्तिस्थान केन्द्र वा पुन ति सारिवदिति । समासोक्तिरलंकारः ॥४२॥ भ्रमणमेतु जनः खलु माययाङ्कितगुण स्तरुणोऽपि च तृष्णया । अपि तु जातु च यातु मरीचिकाविवरणे हरिणः किमु वीचिकाम् ।।४३।। भ्रमणमेत्वित्यादि-अयं संसारी जनः खलु मायया मोहनियाऽङ्कितगुणः समाच्छा अर्थ-मनोरथोंकी पूर्तिमें तत्पर रहनेवाला यह प्राणी पुलकित शरीर हो कदलीपत्रके जालके समान स्वकीय जन्मके बन्धनोंको सुदृढ़ करता हुआ अत्यधिक पराभवको प्राप्त होता है ।।४।। ___ अर्थ-चौरासी लाख योनिरूप चौराहेमें भ्रमण करता हुआ यह जोव दुष्ट इन्द्रियोंका वशीभूत हो क्षणभरमें जन्मको प्राप्त होता है और क्षण भरमें मृत्युको प्राप्त होता है, परन्तु आगे बढ़कर परमपद-मुक्तिको प्राप्त नहीं होता। भावार्थ-जिस प्रकार चौपड़की चारों पट्टियोंमें भ्रमण करता हुआ गोटपासा ठोक न पड़नेसे क्षणभरमें जीतका अनुभव करता है और क्षणभरमें मारा जाता है, परन्तु ऊँचा उठकर केन्द्र स्थानको प्राप्त नहीं होता, उसी प्रकार यह जोव नरकादि चारों गतियोंमें इन्द्रिय विषयोंके कारण परिभ्रमण करता हुआ जन्म-मृत्युको प्राप्त होता रहता है, पर चक्रसे निकलकर मुक्ति पदको प्राप्त नहीं हो पाता ।।४२॥ __ अर्थ-मोहसे आच्छादित बुद्धिवाला संसारो प्राणी तृष्णासे तरुण होता हुआ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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