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११५४ जयोदय-महाकाव्यम्
[ ३९-४० गतगद इत्यादि-प्रथमं तु गदेन रोगेण बाधामेति जनो गतगयोऽपि चेदेषोऽशनिना वज्रण कटाक्ष्यते ततोऽप्यहतो भुजगाग्निविषादिभिः कटाक्ष्यत इति कृतान्तस्य मरणस्यैव समाजमयेऽस्मिन् भवेऽस्य जन्तोरस्तभोर्भयजिता स्थितिः कियच्चिरमिह स्यात् ॥३८॥ गृहमिदं वृषवास्तु न वास्तु किं विशति निर्बजतीति यदृच्छया। हसति रौति च मत्त इवात्र तु निजधियं प्रतिपद्य जनोऽन्वयात् ॥३९॥
गृहमित्यादि-इदं गृहमपि वृषवास्तु धर्मस्थानमिव न वास्तु किम् ? किन्तु तदेवास्ति यतोऽत्र प्राणी यदृच्छया विशति निर्गच्छति च, तस्मिन् विशति निर्वजति च सति जनः सर्वसाधारणोऽन्वयान्ममत्वं निजधियं स्वोऽयं ममेति कृत्वा मत्तो विक्षिप्त इवात्र हसति च रौति च । उपमालंकारः ॥३९॥ शमनमेष शिरःस्थितमीक्षतां नहि पुनः कवलेऽपि रुचिस्तता। प्रतिभवेत् किमुतापरसम्पदि पतति किन्तु न सन्मतिसंसदि ॥४०॥
शमनमित्यादि-एष संसारी यदि स्वशिरसि स्थितं शमलमन्तकमीक्षतां तदा पुनः कवलेऽन्नग्रासेऽपि रुचिस्तता संगता नहि प्रतिभवेत्, किमुतापरसम्पदि पुत्र. कलत्रादौ स्यात् ? अपि तु नैवेति । किन्त्वेष सन्मतेः श्रीमहावीरस्य सन्मतीनां विचारशीलानां वा संसदि सभायां पतत्येव नहि ॥४०॥
अर्थ-यदि कदाचित् यह जीव रोगरहित होता है तो वज्रके द्वारा कटाक्षित होता है, अर्थात् वज्रपातसे मृत्युको प्राप्त होता है । उससे भी यदि नहीं मरता है तो साँप, अग्नि और विष आदिके द्वारा कटाक्षित होता है । इस प्रकार यमराजकी समाज-साथी सगे रोग, वज्र, सर्प, अग्नि और विष आदिसे परिपूर्ण इस संसारमें जीवकी निर्भय स्थिति कितनी देर तक हो सकती है ? ॥३८॥ .. अर्थ-क्या यह घर धर्मशालाके समान नहीं है ? क्योंकि जीव इसमें अपनी इच्छानुसार प्रवेश करता है और निकल जाता है। जब यह प्रवेश करता है अथवा निकलता है, तब पागलको तरह हँसता है और रोता है। इस घरको अपना मानकर ही जीव इस अवस्थाको प्राप्त होता है ।।३९।।
अर्थ-यदि यह जीव शिरपर स्थित यमराजको देख सके तो अन्नके ग्रासमें भी इसकी विस्तृत रुचि न रहे, स्त्री-पुत्रादि अन्य सम्पत्तिकी तो बात ही क्या है ? परन्तु यह सन्मति-भगवान् महावीर अथवा अन्य विचारशील मनुष्योंकी सभामें नहीं जाता-उसके सम्पर्कसे दूर रहता है ।।४०।।
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