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________________ ११५२ जयोदय- महाकाव्यम् [ ३३-३५. सौख्येन तत्कालमात्रास्वादनेन विमोहितोऽयं हतमतिविनष्टविचार इतो विषयेषु वृथेक श्रममुपैति किल ॥ ३२॥ यवनुलोमतया पठितं बताक्षरयुगं विषयेषु मुवेऽर्वताम् । मम तु मर्मभिदेव पुनर्मतमिह विलोनतया परिपश्यतः ॥ ३३॥ यदनुलोमतयेत्यादि - यदक्षरयुगं 'राग' इति रूपमनुलोमतया पठितमर्वतां जघन्यानां विषयेषु मदे प्रसक्तये भवति बतेति खेदस्तदेव तु पुनरिह विलोमतया वैपरीत्येन पश्यतो मम मर्मभिदेव 'गरा' इति मतम् ||३३|| जगति दिव्यतनुश्च सुधान्धसां गलति सा स्वयमेव सुधान्धसाम् । क्षणत एव तु मृत्युमुखे स्थिता किमुत मर्त्यगणस्य निरुच्यताम् ॥ ३४ ॥ जगतीत्यादि - जगति पुनः सा सुधैवान्धोऽन्नं येषां तेषां दिवौकसां दिव्या चास तनुर्निष्कीकशादिरूपा सा च स्वयमेव क्षणत एवात्र गलति विनश्यति तदा पुनर्मर्त्यगणस्य. मृत्युमुख एव स्थिता या सा किमुतेति निरुच्यताम् ||३४|| भजति हा विषयानसुमस्तकं न लभते च पुरः स्थितमन्तकम् । शिरसि सन्निहितांइछगलो बलावपि धृतोत्ति मुदा यवतण्डुलान् ॥३५॥ भजतीत्यादि - असुमान् प्राणी विषयान् भजति सेवते च किन्तु पुरः स्थितमग्र एव स्थितमन्तकं कालं न लभते तमेव तकं सर्वभक्षकं हाव्ययः खेदार्थः । बलावपि घृतः संकल्पित छागोऽजापुत्रः स शिरसि सन्निहितान् यवतण्डुलान् मुदात्ति खादति प्रसन्नतयेति ॥ ३५ ॥ है, अतः वर्तमानके क्षणिक सुखमें लुभाया यह निर्बुद्धि मनुष्य इन विषयोंमें व्यर्थ अत्यन्त श्रमको प्राप्त होता है ? ||३२|| و अर्थ - अनुलोमता - पूर्वानुपूर्वीरूपसे पढ़े गये 'राग' रूप दो अक्षर जघन्य मनुष्योंके विषय सम्बन्धी प्रसन्नताके लिये हैं । पश्चादानुपूर्वीरूपसे जब मैं उन्हें देखता हूँ तब वे 'गरा' विषरूप होकर मेरा मर्मभेदन करनेवाले हो जाते हैं ||३३|| अर्थ - इस जगत् में जब अमृतभोजी देवोंका दिव्य शरीर भी क्षणभरमें नष्ट हो जाता है, तब मनुष्यसमूहका जो शरीर मृत्युके मुखमें ही स्थित है उसके विषयमें क्या कहा जावे ? वह तो अवश्य ही नष्ट होनेवाला है || ३४।। अर्थ - यह प्राणी विषयोंका सेवन करता है परन्तु सामने स्थित मृत्युको नहीं देखता है जैसे कि बलिके लिये संकल्पित बकरा शिरपर रखे हुए जौ और Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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