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________________ १३-१४] पञ्चविंशतितमः सर्गः ११४५ तणवदित्यादि-सपदि साम्प्रतं समये कवये कृष्णा 'ब्राक्षेव या तया तृष्णया मातृगयं संसारिजनः स छागलोऽजापुत्रस्तद्वत् स उत्पणं प्राप्तव्यं धनं तृणवत् पुरःपुरः समुपदर्य विपदे बाधाय चैव दूरमनायि नीतोऽस्मि । दृष्टान्तोऽलंकारः ॥१२॥ तरुरुचा (त्वचा) वसनं शयनं तथाऽवनितले खलु याचनयाशनम् । परिकरं तनमात्रमितोऽप्यहो भवितुमिच्छति चक्रपतिजनः ॥१३॥ तररुचेत्यावि-यस्य तरुचा वल्कलेन वस्त्रं, पृथ्वीतले शयनं, भिक्षया भोजनं शरीरमात्रं च परिकरं परिग्रहो विद्यते सोऽपि जनश्चक्रपतिर्भवितुमिच्छतीत्यहो महवाश्चर्यम् ॥१३॥ जडजनो विमनाः कितवासवे नरमते रमते द्रविणोत्सवे। कनकनाम समेत्य समं द्वयोर्न कियवन्तरमेति बुधोऽनयोः ॥१४॥ जडजन इति-कितवो धतूरस्तस्यासवे विक्षिप्तताकारिद्रवे विकृतं मनो यस्य स जडजनोज्ञानसहितजनः नरमते मनुष्यावृते द्रविणोत्सवे धनोत्सवे रमते हर्षमनुभवति कनकनाम समेत्य प्राप्य, धत्तूरोऽपि कनकं स्वर्णमपि कनकं इति समं सदृशं नामाभिधानं समेत्य बुधो ज्ञानी अनयोयोः कियवन्तरं वैशिष्टयं नैति न जानाति, न प्राप्नोति वा ॥१४॥ अर्थ-जिस प्रकार आगे आगे घास दिखाकर कोई बकराको मारनेके लिये दूर ले जाता है उसी प्रकार मुझ जैसा अज्ञानी प्राणी कविके लिये द्राक्षास्वरूप तृष्णाके द्वारा आगे आगे प्राप्तव्य धन दिखला कर विपत्तिके लिये दूर ले जाया गया है ॥१२॥ अर्थ-जिसका वस्त्र वृक्षकी छाल है, जो पृथिवी तल पर सोता है, भिक्षासे भोजन करता है और शरीरमात्र ही जिसके साथी सगा है, वह मनुष्य भी चक्रवर्ती बननेकी इच्छा करता है । बड़ा आश्चर्य है ॥१३॥ अर्थ-धतूराके आसवसे उन्मत्त हुआ अज्ञानी मानव निरमते-मनुष्यके लिये इष्ट धनके संचयमें आनन्द मानता है। धतूरा और सुवर्ण दोनोंका नाम 'कनक' है, अतः नामकी समानता पाकर अज्ञानी दोनोंमें कितना अन्तर है यह नहीं जानता ॥१४॥ १. 'कृष्णा तु द्रौवदी नीली हारहूरा सु पिप्पलौ' इति विश्वलोचनः । हारहूरा द्राक्षा । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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