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________________ ११४४ जयोदय-महाकाव्यम् [ १०-१२ बुद्धि किं तनुषे ? कुटकुटी जलानयनदासी तस्या घटमेहि सम्यगवलोकय यो भृतः स तु वशिको रिक्तो भवति वशिकोऽथ यः स भूतो भवतीति भृशं निरन्तरमनुवृत्तिर्जायते । ननु वितर्के । अनुप्रासः ॥९॥ किमु भवेद्विपदामपि सम्पदा भुवि शुचापि रुचापि जगत्सदाम् । करतलाहतकन्दुकंवत् पुनः पतनमुत्पतनं च समस्तु नः ॥१०॥ किमु भवेदित्यादि-जगत्सदा जगन्निवासिनां भुवि पृथिव्यां विपदामपि समागमे शुचा शोकेन किं सम्पदामपि समागमे रुचा रुच्या कि प्रयोजनम् ? न किमपीत्यर्थः । यतो नोऽस्माकं करतलेनाहतं ताडितं यत्कन्दुकं गेन्दुकं तद्वद् उत्पततमुन्नमनं पुनः पतनमवनमनं च समस्तु भवेदेव ॥१०॥ ननु जनो भुवि सम्पदुपार्जने प्रयततां विपदामुत वर्जने । मिलति लाङ्गलिकाफलवारिवद् व्रजति यद्गजभुक्तकपित्थवत्॥११॥ ननु जन इत्यादि-भुवि पृथिव्यां ननु निश्चयेन जनः सम्पदामुपार्जने संचयकरणे उताथवा विपदां वर्जने निराकरणे च प्रयततां स्वेच्छं प्रयत्नं करोतु परन्तु प्रयत्लेन न तत्साध्यम् । यद्यस्मात् कारणाद् लाङ्गलिकाफलवारिवद नालिकेरस्यान्तःस्थितजलवत् सम्पत् शुभोदये स्वयं मिलति प्राप्यतेऽशुभोदये च गजेन भुक्तं यत्कपित्थं दधिफलं तद बजति गच्छति, नश्यतीति यावत् ॥११॥ तृणवदुत्पणमेव पुरः पुरः समुपदर्या च मागयं नरः । छगलवद्विपदे कविकृष्णया सपदि दूरमनायि च तृष्णया ॥१२॥ शाली हूँ ऐसी बुद्धि क्यों करता है, तू रेहटके घटको अच्छी तरह देख, जो भरा है वह खाली हो जाता है और जो खाली है वह भर जाता है । तात्पर्य यह है कि जो आज वैभववान है, वह दूसरे दिन दरिद्र हो जाता है और जो दरिद्र है वह वैभववान् हो जाता है ।।९।। ____ अर्थ-जगद् निवासी जीवोंको पृथिवीपर विपत्तियोंका समागम होनेपर शोक और सम्पत्तियोंका समागम होनेपर रुचि-हर्षसे क्या होता है ? अर्थात् कुछ नहीं, क्योंकि मनुष्योंका उत्थान और पतन हस्ततलसे ताडित गेंदके समान होता ही रहता है ॥१०॥ अर्थ-पृथिवीपर मनुष्य सम्पत्तियोंका संचय करने और विपत्तियोंका निराकरण करनेमें प्रयत्न भले हो करे, परन्तु शुभोदय होनेपर नारियलके भीतर स्थित पानीके समान संपत्ति स्वयं मिलती है और पापका उदय होनेपर हाथीके द्वारा खाये हुए कथाके सारके समान स्वयं चली जाती है ।।११।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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