________________
७-९ ]
पञ्चविंशतितमः सर्गः
११४३
न भविन इत्यादि - पुनश्च भविनो जन्मधारिणो यावज्जन्मापि दिवसास्ते शाश्वताः सदैकरूपा न भवन्ति, किन्त्विहापि किलाह निशयोदिनरात्र्योरिव मिति: सम्मतास्ति । यतोऽनानाथ एव नरनाथतामितो भाति, प्रमुदितः प्रसन्नतया स्थितो जनश्च रुवित इति पुनरीक्ष्यताम् । अनुप्रासोऽलंकारः ||३|| जवादहमिन्द्रतां
तमपहाय
पणपणत्वमुरीक्रियतेऽर्वता । व्रजति किञ्चिदवाप्य मदं पुनस्तदपि पर्ययबुद्धिरयं जनः ॥ ७
तमपहायेत्यादि - अर्वता निन्दितेन संसारिणा जवादतिशीघ्र मेवाहमिन्द्रतामपहाय त्यक्त्वा पणः कपर्द एव पणो मूल्यं यस्य तत्वमुरीक्रियते तदपि पुनरयं बुद्धिरवस्थामात्रानुवेवको जनः किञ्चिदप्यवाप्य मदं व्रजति किलाहमहमैश्वर्यशालीति वदति ॥७॥
भूतिकवत् खलु षष्ठसतोंऽशतः समनुपालयता जनतां ततः । नृपतिरित्युररीक्रियते जिन ! धिगपि धिग् जडतामिति देहिनः ॥८॥
भृतिक्वदित्यादि - हे जिन ! भगवन् ! खलु षष्ठसतोंऽशतस्ततो जनताया आजीवनात् षष्ठांशं गृहीत्वा भृतिकवद् वासवत्ततस्तां समनुपालयता जनेनाहं नृपतिरित्युररीक्रियते । तामित्येतादृशीं देहिनो जडतां धिक् पुनरपि धिक् कीदृशीर्य विडम्बनेति ॥८॥
विभववानहमित्यतिसाहसिन् सुभग कि तनुंषे ननु शेमुषीम् । कुटकुटी घटमेहि नु यो भृतः स वशिको वशिकोऽथ भृशं भृतः ॥ ९ ॥ विभववानित्यादि - हे सुभग ! हेऽतिसाहसिन् ! नन्वहं विभववानस्मीति शेमुषीं
अर्थ – जन्मधारी- संसारी प्राणीके दिन भी सदा एक स्थिति रात और दिनके समान मानी गई है। स्पष्ट देखा अनाथ है वह नरनाथता- राज्यावस्थाको प्राप्त हो जाता है है - हर्ष का अनुभव कर रहा है, वह रुदनको प्राप्त हो जाता है
अर्थ -- निन्दित संसारो जीव अहमिन्द्रताको छोड़कर शीघ्र हो कौड़ी मूल्य वाले नरजन्मको प्राप्त करता है । फिर भी यह पर्याय बुद्धिजन कुछ थोड़ा विभव पाकर गर्वको प्राप्त होता है ||७||
अर्थ - जनताकी आयका छठवां भाग लेकर सेवककी तरह जो उसका पालन करता है, फिर भी वह अपने आपको राजा स्वीकार करता है । है भगवन् ! प्राणीकी इस मूर्खताको बार-बार धिक्कार है ||८||
अर्थ- हे अत्यधिक साहस करनेवाले भले आदमी ! मैं विभवान् हूँ - ऐश्वर्यं
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
रूप नहीं हैं, उनकी जाता है कि जो और जो प्रमुदित
||६||
www.jainelibrary.org