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१४१-१४३]] चतुर्विशः सर्गः
११३९ रेफमञ्जुलयोः साम्यभृतामाज्ञापरत्वतः ।
नररामां सदा देवि पररामामुपैमि भोः ॥१४१॥ रेफेत्यादि-भो देवि ! रेफ नन्दितं च मञ्जुलं मनोहरं तयोद्वयोः साम्यभृतां समबुद्धीनां सतामाज्ञापरत्वतोऽहं परेण गृहीतां रामां पररामां तां सदा नररामां रलयोरभेदाल्ललामा सुन्दरी नोपैमीत्यनुप्रासः ।।१४१।।। औदासीनवचोऽवचाय कुणपीप्राया भवन्तीति साऽऽ
दायामुं परिगत्वरी तु सहसा सच्चक्षुषा भत्सिता । त्यक्त्वाऽगात्तमहो सुशीलमहिमाऽसौ येन संजायते
सो हारतयाऽनलो जलतयाऽसिः पुष्पमाला तया ॥१४२॥ औदासीन्यवच इत्यादि-सा देवी जयस्य पूर्वोक्तमुदासीनतायुक्तं वचोऽवचाय श्रुत्वा पुनः कुणपोप्राया दुर्गन्धदुराकारवती भवन्तीत्यमु जयकुमारमादाय तु पश्चात्परिगत्वरी धावनशीला सा सहसा सच्चक्षुषा सुलोचनया भत्सिता संतजितातः पुनस्तं जयकुमार त्यक्त्वाऽगाज्जगाम । अहो सुशीलस्यासौ महिमा येन सर्पो हारतया भूषणरूपेणानलोऽग्निर्जलतयाऽसिश्च पुष्पमाला तया संजायते परिणमनमेति ॥१४२॥ निष्कामितामिति समीक्ष्य सुपर्वणाथ
हर्षप्रफुल्लवदनेन सजानिनाऽऽरात् । आगत्य तेन समपूजि सजानिरेष
यो ब्रह्मणापि महितः स न मह्यते कैः ॥१४३॥ निष्कामितामित्यादि-इत्येवं निष्कामितां शीलवत्तां समीक्ष्याराच्छीघ्रमेव हर्षवाली कहीं कोई बात नहीं है । खेद है कि तुम तुच्छ विषयसुखसे नरक नामक दुर्गतिके भारी दुःखको खरीद रही हो ॥१४०।। - अर्थ हे देवि ! भद्र और अभद्रमें समताभाव धारण करने वाले सत्पुरुषोंको आज्ञामें तत्पर होनेके कारण मैं दूसरेके द्वारा गृहीत सुन्दर स्त्रीको भी स्वीकृत नहीं करता हूँ ॥१४॥ ___ अर्थ-वह देवी जयकुमारके पूर्वोक्त उदासीनतापूर्ण वचन सुनकर राक्षसी जैसी दुर्गन्धित तथा विरूप आकार वाली होती हुई जयकुमारको लेकर भागने लगी। तब सुलोचनाने उसे डांटा, जिससे जयकुमारको छोड़कर चली गई । कवि कहते हैं कि सुशीलकी महिमा आश्चर्यकारो है, क्योंकि उससे सर्प हाररूप, अग्निजलरूप और तलवार पुष्पमालारूप परिणत हो जाती है ॥१४२॥
अर्थ-इस प्रकार शीलवत्ताको परीक्षा कर प्रसन्न मुख वाले देवने देवी
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