SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 533
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११३८ जयोदय-महाकाव्यम् [ १३८-१४० तवगात् द्रुतमेव वचनचक्रं च. ते तक्रवत् कटु अभूज्जातं तथा तेऽङ्गगतम् तु पुनः किल. किलाटवन्निःसारमेव ॥१३७॥ अहो धुरि कुलस्त्रीणां प्राप्तयापि पराप्तया । __अनङ्गरूपमझादस्त्वयाऽभाषि सुभाषिणि ।।१३८।। अहो इत्यादि-अङ्ग हे भद्रे ! कुलस्त्रीणां धुरि प्राप्तयापि कुलीनासु प्रथमयापि पुनः परेण पुरुषेणाप्तया स्वीकृतयापि त्वयाद एतदनङ्गरूपं कामवासनापूर्णमतोऽनुचितात्मकमभाषि कथितमस्ति । हे सुभाषिणि ! एतत्सम्बोधनं पूर्वकालापेक्षया ॥१३८॥ शुचेस्तव मुखाम्भोजान्निरेति किमिदं वचः । दूरे तिष्ठति हे देवि रेफगर्भावतः सुधीः ॥१३९॥ शुचेरित्यादि-हे देवि ! तव शुचेः परमपुनोतान्मुखाम्भोजाद् वदन कमलादपोदमेतादृग्वनं किमिति कथं निरेतीत्यहं न जाने रेफगर्भाद् रेफो निन्दितो गर्भोऽन्तर्भागो यस्य तस्मादतो वचनात् सुधीर्दूरे तिष्ठति । 'रेफो रवणे पुस्येव कुत्सिते त्वभिधेयवत्' इति विश्वलोचने ॥१३९॥ विरम विरमतः सुरमेऽमुकतः सुकतत्वमत्र न हि जातु । हा तुच्छविषयसुखतः क्रोणास्युरु दुर्गतेदुःखम् ॥१४॥ विरमेत्यादि-हे सुरमे ! सुष्ठमहिले ! अमुकतो विरमतोऽसुन्दराद्वचनाद्विरम दूरीभव, यतोऽत्र जातुचिदपि सुकतत्त्वमाह्लादकारित्वं नास्ति हि संस्मरेति किल तुच्छान्नि:साराद्विषयसुखतो दुर्गते रकाभिधाया उरु दुःखं सागरान्तभावि कष्टं क्रोणासि । अनुप्रासोऽलंकारः ॥१४०॥ सहित-अग्निसे सहित हो चला गया-पिघलकर बह गया, वचनचक्र-वचनसमूह तक्र-छाछके समान कटुक हो गया और शरीरगत जो चेष्टा है वह किलकिलाटछोकके समान निःसार है, यह क्या तुम देख नहीं रही हो। भावार्थ--तुम्हारे मानसिक, वाचनिक और शारीरिक विकार मुझे विचलित करनेमें अकार्यकारी हैं ॥१३७।। ___अर्थ-हे सुभाषिणि ! कुलीन स्त्रियोंमें अग्रणी होकर भी तुमने परपुरुषको प्राप्त हो यह कामवासनापूर्ण अनुचित वचन कहा है ॥१३८।।। ___ अर्थ-हे देवि! तुम्हारे पवित्र मुखकमलसे यह वचन कैसे निकला ? जिसका मध्यभाग निन्दनीय है. ऐसे वचनसे सुधीजन-ज्ञानीजन दूर रहते हैं ॥१३९।।। अर्थ--हे भद्रमहिले ! इस अशुभ वचनसे दूर रहो, क्योंकि इसमें सुख देने Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy