SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 53
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समवसरणका वैभव, जय कुमारका वैराग्य, पुत्रको राजनीतिका उपदेश तथा तपश्चर्याका विशद वर्णन इस काव्यकी गरिमाको बढ़ाने वाले प्रकरण हैं । सुलोचनाके सतीत्वके प्रभावसे उफनती गङ्गाका प्रभाव कम होना, ग्राहसे जयकुमारके गजका मुक्त होना, अर्ककीर्तिको जीतने के बाद जयकुमारका भरत चक्रवर्तीसे साक्षात्कार और भरत चक्रवर्तीके द्वारा जयकुमारका शुभाशंसन आदि सन्दर्भ वरवश पाठकोंका मन मोहित कर लेते हैं । १४ वें सर्गसे लेकर २८ वें सर्ग तकका यह उत्तरार्धं संस्कृत और हिन्दी टीकाके - साथ प्रकाशित हो रहा है। श्री आचार्य ज्ञानसागरजी द्वारा विरचित जयोदय, वीरोदय, दयोदय, सुदर्शनोदय और समुद्रदत्त चरित्रका अध्ययन कर कुमारी विदुषी डा० किरण cused कुमायूँ विश्वविद्यालयसे 'मुनि श्री ज्ञान सागरका व्यक्तित्व और उनके संस्कृत काव्य ग्रंथोंका साहित्यिक मूल्यांकन' विषय पर पी-एच. डी. की उपाधि प्राप्त की है । ग्रन्थ पर विस्तृत प्रस्तावना श्री डॉ० भगीरथ त्रिपाठी 'वागीश शास्त्री' निदेशक अनुसंधान संस्थान सम्पूर्णानन्द संस्कृत महाविद्यालय काशीने लिखकर महाकाव्यका गौरव बढ़ाया है । अनुवाद संस्कृत टीकाके आधार पर किया गया है। कुछ श्लोक ऐसे हैं जिन पर आचार्य ज्ञानसागरजीने स्पष्ट लिखकर संस्कृत टीका नहीं लिखी थी पर आवश्यक थी अतः संस्कृत टीकाका संयोजन भी किया है । समास बहुल अनेकार्थंक श्लोकोंका हिन्दी अनुवाद कठिन होता है । यदि शब्दार्थ की ओर दृष्टि जाती है तो हिन्दीका सौन्दर्य समाप्त होता है और हिन्दीके सौन्दर्यकी रक्षा की जाती है तो कविका भाव प्रकट नहीं हो पाता । फिर भी यथाशक्य दोनोंको संभालनेका प्रयत्न किया गया है । प्रयत्न कहाँ तक सफल हुआ है इसका निर्णय विज्ञ पाठक मनीषी स्वयं करेंगे । काव्यके निर्माता श्री महाकवि भूरामल शास्त्री (स्व० आचार्य ज्ञानसागर जी) की प्रतिभासे चमत्कृत हुए बिना नहीं रहेंगे । इसके १-१३ सर्गं तकके पूर्वार्धमें संस्कृत टोकाके साथ अन्वय भी दिया गया है परन्तु १४-२८ सर्गके उत्तरार्ध में अन्वय नहीं दिया जा सका है क्योंकि द्वयथंक श्लोक अधिक हैं तथा शब्दोंकी तोड़ फोड़ अधिक मात्रामें है अतः संस्कृत टीका साथमें रहनेसे अन्वयकी सार्थकता हृदयगत नहीं हुई । १७ वें सर्गमें संभोग श्रृङ्गारका वर्णन है उसकी हिन्दी टीका मैंने नहीं लिखो । शान्त करें। एक निवेदन सत्र रसोंका वर्णन होता जिज्ञासु महानुभाव संस्कृत टीकाके माध्यमसे अपनी जिज्ञासा है कि "जयोदय महाकाव्य" काव्य ग्रन्थ है काव्य में प्रसङ्गवश है । शृङ्गारके स्थान पर शृङ्गारका और शान्तके स्थान पर शान्त रसका वर्णन आवश्यक होता है । अतः पाठकोंका लेखक पर यह आक्षेप नहीं होना चाहिये कि लेखकने खुलकर शृङ्गारका वर्णन किया है। आचार्य श्री १०८ विद्यासागर जी महाराज अपने विद्या और दीक्षा गुरुकी इस Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy