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________________ इसी प्रकरणका एक चमत्कार और देखियेगान्धीरुषः प्रहर एत्यमृतक्रमाय तत्सूत नेहरूचयो बृहदुत्सवाय । राजेन्द्र राष्ट्रपरिरक्षणकृत्तवाय मत्राभ्युदेतु सहजेन हि सम्प्रदायः ।।८४॥ हे राजाओंके इन्द्र ! प्रातःकालके पहरमें उत्तम पुरुषोंकी बुद्धि अमृतत्व प्राप्त करनेके लिये पुष्य पाठ रूप गो-वाणीको प्राप्त होती है। इस समय सत्-नक्षत्रोंको दीप्ति महान् उत्सवके लिये होती अर्थात् नक्षत्र निष्प्रभ हो रहे हैं अतः राष्ट्रकी रक्षा करनेवाला आपका यह अय-समीचीन भाग्य, सहज स्वभावसे वृद्धिको प्राप्त हो । गांधीजीके रोषको दूर करनेवाला नेहरू परिवार सत्सु-सज्जनोंमें महान् उत्सवके लिये तत्पर है और राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद, यह सब राष्ट्रनेताओंका परिकर अभ्युदय को प्राप्त हो ।' सत्को तिरञ्चति किलाभ्युदयं सुभासा स्थानं विनारिमृदुवल्लभराट् तथा सः । याति प्रसन्न मुखतां खलु पद्मराजो निर्याति साम्प्रतमित सितरुक्समाजः ॥८१॥ इसी सन्दर्भका एक श्लोक और देखिये हे अजात शत्रु ! तथा कोमल प्रकृति वाले मनुष्योंको प्रिय राजन् ! इस प्रातला में सूर्य दीप्तिकी समीचीन कीर्ति अभ्युदयकी प्राप्ति हो रही है अथवा अभिगत-प्राप्त है उदय-उत्कर्ष जिसमें ऐसे स्थानको प्राप्त हो रहे है। पद्मराज-श्रेष्ठ कमल (शतदलसहस्र दल) प्रसन्न मुखताको प्राप्त हो रहा है अर्थात् विकसित है और सितरुक्समाजचन्द्रमाका परिवार-नक्षत्रगण यहाँसे निकल रहा है छिप कर अन्यत्र जा रहा है । अर्थान्तर-हे देव इस समय (विक्रम संवत् २५०७) सुभाषचन्द्र बोस की उज्ज्वल कोति अभ्युदयको प्राप्त हो रही है, अजात शत्रु तथा कोमल प्रकृति वालोंको प्रिय राष्ट्र-डा० राजेन्द्र प्रसाद राष्ट्रपतिके आसनको प्राप्त हो रहे हैं, पद्मराज प्रसन्न मुखताको प्राप्त है अर्थात् देशके स्वतन्त्र होनेसे हर्षका अनुभव कर रहे हैं और सितरुक्समाजगौराङ्ग अंग्रेजोंका परिवार अथवा समूह यहाँसे निकल रहा है-अपने देशको जा रहा है। इस प्रकार अठारहवाँ सर्ग ही नहीं सम्पूर्ण ग्रन्थ विचित्र सूक्तियोंसे परिपूर्ण है। कैलासका वर्णन, जयकुमार के द्वारा कृत जिनेन्द्र पूजाका विस्तार, भगवान् वृषभदेवके १. 83-84, 81 श्लोकोंकी संस्कृत टीका द्रष्टव्य है, इसके बिना शब्दोंकी तोड़-फोड़ हृदयंगत नहीं हो सकती। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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