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________________ ११३४ जयोदय-महाकाव्यम् [ १२८-१२९ भाग्यानुयोगादित्यादि-अथ स उदात्त उत्तमश्चिन्तामणिरिति तया भाग्यानुयोगात् शुभोदयवशात् सहसाद्याभ्युपात्तः समुपालब्धः। स एष पुनरिह चेद्यदि भावविद्या पदार्थज्ञानरूपाऽनवद्या निर्दोषा प्रवर्तते तदार्थ समर्थयितु वाञ्छितप्रदानं करोतु। अनुप्रास एवालंकारः॥१२७॥ अथायमास्ते समयः सहायः येनाभ्युपात्तः समरूपकायः । मया शरोपाधिकया स्मरस्य त्वं निर्जरप्राय इह प्रशस्य ! ॥१२८।। __ अथायमित्यादि-हे प्रशस्य ! अद्यायं समयः सहाय आस्ते येन तया मया रूपं च कायः शरीरं च तौ समौ रूपकायौ यस्य स त्वं निर्जरप्रायो जरारहितो युवा रलयोरभेदान्निर्जलप्रायः स तया मया स्मरस्य कामस्य शरेण बाणेन तथा जलेन कृत उपाधि. यस्यास्तयाऽभ्युपत्तः । श्लेषोऽलंकारः ॥१२८॥ निका गुणेनास्मि भवानिदानीमेकायते तावदथात्ममानिन् । समाश्रयात् साधुदशत्वमस्तु नो चेत्पुनः शून्यतयास्म्यवस्तु ॥१२९॥ निकेत्यादि-हे आत्ममानिन् स्वोपयोगशालिन् ! अहं गुणेन सह निका गुणनिका गुणग्राहिका शून्यरूपा च भवामि, किन्तु भवानिदानीमेकायत एक इवाचरत्येकाकी च भवति प्रसिद्धा वा तावदथ द्वयोरपि समाश्रयात्संयोगात् साधुदशत्वं सुन्दरावस्थत्वं सुष्टु अर्थ-आज शुभोदयसे उसने उत्तम चिन्तामणि स्वरूप आपको प्राप्त किया है-आप यहाँ विद्यमान है यह ज्ञात किया है। यदि पदार्थ ज्ञानरूप निर्दोष भावविद्या आपके पास है-आप उसके अभिप्रायको समझ सके हैं तो वाञ्छितमनोरथको प्रदान करें-पूर्ण करें ॥१२७॥ अर्थ-हे प्रशंसनीय ! यह अनुकूल समय है जिससे कि कामबाणसे पीड़ित मैंने निर्जर प्राय-तरुणावस्थासे युक्त आपको प्राप्त किया है। अर्थान्तरशरोपाधि-जलके उपद्रवसे पीड़ित मैंने निर्जलप्राय-जलके उपद्रवसे रहित आपको प्राप्त किया है ॥१२८॥ __ अर्थ-हे आत्ममानिन् ! स्वोपयोगशालिन् ! मैं गुणसहित निका अर्थात् गुणनिका गुणग्राहिणी हूँ अथवा शून्यरूप हूँ और आप इस समय एकके समान आचरण करते हैं अथवा एकाको-द्वितीयरहित हैं, अतः दोनोंके संयोगसे साधुदशत्व-सुन्दरावस्था हो अथवा अच्छी तरह दश संख्या हो-दोनोंकी पाँचपाँच इन्द्रियोंके मिलनेसे दश संख्या हो। यदि ऐसा नहीं होता है तो शून्यताके कारण मैं अवस्तु रूप होती हूँ, अर्थात् मरणको प्राप्त होती हूँ ।।१२९।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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