SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 527
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जयोदय-महाकाव्यम् [१२२-१२४ स्वमिन्दुकान्तत्वमहो जगाद मुखं मृगाक्ष्याः प्रकृतप्रसाद !। विधूदये सुश्रवदश्रुकायः स्वतोऽमुतो येन पयोनिकायः ॥१२२॥ __ स्वमित्यादि-हे प्रकृतप्रसाद ! कृपाशील ! तस्या मृगाक्ष्या मुखं स्वमात्मसम्बन्धि तदिन्दुकान्तत्वं चन्द्रसदृशसुन्दरत्वमुत चन्द्रकान्तमणित्वं जगाद येन किल कारणेन विधोश्चन्द्रस्योदये सति तावदेवामुतस्तस्या मुखात् सुत्रवन्ति निर्वजन्ति अश्रूणि तान्येव कायो यस्य स पयोनिकायोऽम्बुप्रवाहः स्वत एवेति अहो समद्भुतमेतत् । अन्यथानुपपत्तिः ।।१२२॥ निशो निवृत्ती स्विदुषो गतं वा रुषो विधि पूर्वदिशोऽविलम्बात् । तत्राथ च त्रासमवाप शापवशंगता ते सुतरामपाप ॥१२३॥ निशो निवृत्तावित्यादि हे अपाप ! पापाचारवजित ! निशो रानिवृत्ती समाप्तावपि स्विदुषः प्रातरभूत् तदविलम्बात् तत्कालमेव पूर्वविशः प्राच्या रुषो विधि गतं पूर्वदिशापि सपत्नी तस्याः प्रकोपोऽभूत् । ततोऽथ च तत्रापि ते शापवशं गता सा विरहाधीना सुतरां त्रासमवाप । अनुप्रासोऽलंकारः ॥१२३॥ इत्येवमेषा ललना विशेषात्प्रवर्तते स्वत्स्मरणावशेषा। स्माहारमप्युज्झति नैव हारं गता बतारान्मवनाधिकारम् ॥१२४॥ इत्येवमित्यादि-इत्येवमारात् पूर्णतया मदनस्य कामस्याधिकारं गता तदधीना सत्येषा ललना हारं कण्ठभूषणमित्युपलक्षणं तेन सर्वशृङ्गारमेव न किन्तु माहारमपि उज्झति त्यजति स्मेति बत सखेदमुध्यते। विशेषात्केवलं त्वत्स्मरणावशेषा भवता सह समागमस्याशामात्रतया प्रवर्तते भो प्रभो ! अनुप्रासोऽलंकारः ॥१२४॥ अर्थ-हे कृपाशील ! उस मृगनयनीका मुख अपने आपकी चन्द्रमाके समान सुन्दरता अथवा चन्द्रकान्तमणित्वको स्वयं कहता है, क्योंकि चन्द्रोदय होने पर उससे झरते हुए अश्रुसमूहरूप जल-प्रवाह स्वयं प्रवाहित होने लगता है। यह अद्भुत बात है ॥१२२।।। अर्थ हे अपाप ! पापाचाररहित ! रात्रिकी समाप्ति होने पर उषाकाल आता है पर वह शीघ्र ही पूर्व दिशाके क्रोधको प्राप्त हो जाता है, अतः आपके क्रोधकी वशीभूत वह उस समय भी अत्यधिक त्रास-दुःखको प्राप्त होती है ।।१२३॥ अर्थ-इस प्रकार पूर्णरूपसे कामकी अधीनताको प्राप्त इस स्त्रीने न केवल हार (उपलक्षणसे सर्वशृङ्गार) को छोड़ा है, किन्तु आहार भी छोड़ दिया है। केवल आपका स्मरण ही उसके शेष रहा है, यह बड़े दुःखकी बात है ।।१२४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy