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१२०-१२१] चतुर्विंशः सर्गः
११३१ पक्षे हे शिव ! सैषा त्वया अर्धवशिष्टा कृता महादेवेन गौरीत्वं नीता पक्षे दौर्बल्येनार्धमवशिष्टं यस्याः सा, यतस्त्वं तस्या मन एवाम्बुजं कमलं तत्र तिष्ठति स मनोऽम्बुजस्थो ब्रह्मात्मकत्वेनाधीतः सन् पुनरखिलेषु प्रदेशेषु व्यपेक्षणीयः सर्वत्र सर्वास्ववस्थासु त्वमेवावलोकनीयोऽभूदिति कृत्वा च त्वमेव विष्णुवेष इत्थं त्वामेवेषा त्रिमूर्ति निजगाद ॥११९॥ वित्ताश्रितं चित्तमभूच्च तस्याभवत्समीपेऽथ पुनः कुतः स्यात् । अर्थक्रियाकारिशरीरमेतदकारणं कार्यमिवाचेतः ॥१२०॥
वित्ताश्रितमित्यादि-हे आर्द्रचेतः ! करुणाशील ! तस्याश्चित्तं यद्वितया विचारकृत्तयाऽश्रितं तच्च भवत्समीपेऽभूत्ववधीनं बभूवाथ पुनस्तस्या एतच्छरीरमकारणं कारणेन विना कार्यमिव कुतः स्यादिति सा निश्चेष्टा बभूवेति । अन्यथानुपपत्तिरलंकारः ॥१२०॥ आह्वानने तां भवतःप्रवृत्तां त्यक्त्वा क्षुधाद्या अपि ता निवृत्ताः । सख्यस्तदीया न पुनस्त्वदीया दृक् तद्हृवाजीवनदायिनी याः ॥१२१॥ __ आह्वानन इत्यादि-तां भवतः श्रीमत आह्वानने सन्निमन्त्रणे प्रवृत्तां त्यक्त्वा चैकाकिनी कृत्वा ताः प्रसिद्धाः सर्वदापि सहचारिण्यस्ताः क्षुधाचा अपि सख्यो निवृत्ता दूरंगताः पुनरपि तस्या हृदो मनस आजीवनदायिनी प्राणप्रदा या त्वदीया दृक सा नाभूदिति ॥१२१॥
वशिष्ट कर दिया है-अर्धाङ्गिनी बनाकर गौरी रूप प्राप्त कर दिया है (पक्षमें वह सूख कर आधी रह गई है) फिर आप उसके मनरूपी कमलमें स्थित हैं, इसलिये पद्मनिवासी ब्रह्मा है (पक्षमें सदा अपने मनमें आपका ध्यान करती है) तथा संकल्पके कारण सब जगह दिखायी देते हैं, अतः विष्णु हैं । इस प्रकार वह आपको त्रिमूर्ति कहती है ॥११९|| ___ अर्थ-हे करुणाशोल ! उसका जो चित्त वित्ताश्रित-विचारकतासे सहित था वह तो आपके समीप पहुँच गया-आपके अधीन हो गया। इसलिये जिस प्रकार कारणके बिना कार्य नहीं होता इसी प्रकार चित्तके बिना उसका शरीर अर्थक्रियाकारि कैसे हो सकता है ? अर्थात् नहीं हो सकता। भाव यह है कि वह निश्चेष्ट हो गई है ॥१२०॥ ____ अर्थ-आपके बुलाने में प्रवृत्त उस विद्युत्प्रभाको छोड़कर उसकी क्षुधा आदि सखियाँ भो चली गई हैं, फिर भी उसके हृदयको जीवन देने वाली आपकी दृष्टि उसे प्राप्त नहीं हो रही है ॥१२१।। १. 'विरहे स्यात्तन्मयं भुवनम्' इति प्रसिद्धः ।
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