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________________ ११३० जयोदय-महाकाव्यम् [११७-११८ गत इत्यादि-हे गुणोश ! इत्थं प्रकारेण मनोभवस्य कामदेवस्याराम इवाभिरामे मनोहरे तस्मिन्नारामे भवान् दृक्पथमात्रं गतस्तदा तस्या अन्तरङ्गपक्षी विक्रियया विकारभावेन पक्षिचेष्टया वाऽशु शीघ्रमेव त्वत्सन्निधौ सन्निकटे समाप प्राप्तवान् ॥११६।। यतः प्रभत्येव भवानवश्यं सुदर्शनीयोऽपि बभावदृश्यः । नितम्बिनीनां मणिकाभिजाताऽहो साम्प्रतं सा कणिकेव जाता ॥११७।। यत इत्यादि-अवश्यं सुदर्शनीयोऽपि भवान् यतः प्रभृति अदृश्य एव प्रच्छन्नो बभौ तत आरभ्य या नितम्बिनीनां मणिकाभिजाता सर्वदादरणीयमणिरूपापि साम्प्रतं सा कणिकेव जाता भवद्वियोगवशेन कृशप्राया बभूव | अहो आश्चर्ये ।११७॥ यावन्नदीनं दिनमुत्ततार कथं कथं साऽप्यबलाप्युदार । भयंकरा प्रत्युत सा विशेषाद्वनी पुनः सा रजनिश्च केषाम् ॥११८॥ यावदित्यादि-हे उदार विशालहृदय ! सापि किलाबलापि स्वभावतो या सा कथं कथमपि कृत्वा यावन्नदीनं दिनं समुद्रवद् दीर्घ दिवसमुत्ततार व्यतीतवती पुनः सा रजनिश्च केषां सौभाग्यशालिना या सारस्य जनिर्जन्मदात्री सैव प्रत्युत तस्य विशेषाद्भयंकरा वनी जातेति यावत् । श्लेषोऽलंकारः ॥११८॥ मनोऽम्बुजस्थोऽप्यखिलप्रदेशव्यपेक्षणीयः खलु विष्णुवेषः । अविशिष्टा भवता महेशाहो त्वां त्रिमूर्ति निजगाद चैषा ।।११९॥ मनोऽम्बुजस्थ इत्यादि-हे महेश ! महांश्चासावीशश्चेति महेशस्तत्सम्बुद्धी अर्थ-हे गुणोश ! इस प्रकार कामदेवके उपवनके समान सुन्दर उस नन्दन वनमें आप उस विद्युत्प्रभाके दृष्टिगोचर ही हुए थे कि शीघ्र ही उसका मनरूपी पक्षी विक्रियया-विकार भावसे अथवा पक्षि सम्बन्धी चेष्टासे आपके निकट आ पहुँचा ॥१६॥ अर्थ-सुदर्शनीय होने पर भी आप जिस कारण उस समयसे अदृश्य रहे, उस कारण वह विद्युत्प्रभा स्त्रियों में मणिकाके समान श्रेष्ठ होने पर भी इस समय कणिकाके समान कृश हो गई है, यह आश्चर्यकी बात है ॥११७।। अर्थ-हे विशालहृदय ! स्वभावसे अबला होने पर भी उसने किसी तरह नदीन-समुद्रके समान विस्तृत दिनको तो व्यतीत कर लिया, सा रजनि-वह रात्रि जो कि किन्हीं सौभाग्यशाली पुरुषोंके लिये सारजनि-सार्थक जन्म वाली होती है, उसके लिये विशेषकर भयंकर अटवीके समान हो गई है ।।११८॥ अर्थ-हे महेश ! महान् राजन् ! (पक्षमें हे महादेव !) आपने उसे अर्धा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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