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________________ ११४-११६ ] चतुर्विंशः सर्गः ११२९ भ्रमन्ती सतीक्ष्यते सेयं । खलु अध्वगानां पान्यानां बन्धनाय स्तम्भनायेध्माधिपस्य कामराजस्यायोमयी लोहघटिता शृङ्खला निगडततिः स्याद्भवेदित्युत्प्रेक्षालंकारः ।। ११३ ।। प्रान्तभ्रमद्भृङ्गनिनाददम्भादतिप्रसन्ना खलु जगज्जिगीषोर्मदनामरस्य निरन्तरं कूजति प्रान्तेत्यादि -- तु पुनरतिप्रसन्ना पाटला सा खलु प्रान्ते भ्रमन्तो ये भृङ्गा भ्रमरास्तेषां निनादस्य गुञ्जनस्य दम्भान्निरन्तरं जगज्जिगीषविशां जेतुमिच्छतो मदनामरस्य कामदेवस्य काहला ढक्का कूजतीवेत्युत्प्रेक्षालंकारः ॥ ११४ ॥ दृष्टा मुहुर्या कुसुमप्रदेशे भृङ्गः सदङ्गैरथ पल्लवानाम् । कुलैरिदानीमुपलालितापि विभाति सद्यो गणिका प्रसन्ना ॥ ११५ ॥ पाटला तु । काहलेव | | ११४ ॥ दृष्टेत्यादि - अथेदानीमत्र सद्यः प्रसन्ना गणिका' यूथिका वेश्या च विभाति । कीवृशीति चेत् ? पल्लवानां पत्राणां पक्षे विटपानां यद्वा शृङ्गाराणां कुले: समूहैरुपला - लितापि सङ्गेष्टः सुन्दरैश्च भृङ्गरलिभिः कामिभिश्च कुसुमप्रदेशे पुष्पस्थाने मुहुर्वारं वारं दृष्टावलोकितार्थादुपभुक्ता या सा । 'पल्लवो विस्तरे खङ्गे शृङ्गारेऽलक्तकरागयोः । astrस्त्री तु किसले विटपेऽपि च पल्लवः । इति विश्वलोचनकारः । समासोक्तिरलंकारः ॥११५॥ गतो भवान् वृक्पथमात्रमित्थं मनोभवाराम इवाभिरामे । स्वत्सन्निधौ विक्रिययान्तरङ्ग-पक्षी समापाशु गुणीश तस्याः ॥ ११६ ॥ भ्रमरोंको पंक्ति ऐसी जान पड़ती थी, मानों पथिकों को बांधनेके लिये कामदेवकी लोहनिर्मित जंजीर ही हो ॥ ११३ ॥ अर्थ -- अत्यन्त खिली हुई गुलाबकी झाड़ी समीप में भ्रमण करते भ्रमरोंके शब्दके छलसे ऐसी जान पड़ती है, मानों जगत्को जीतनेके इच्छुक कामदेवका नगाड़ा ही निरन्तर बज रहा हो ॥ ११४ ॥ अर्थ - जिस नन्दनवनमें शीघ्र ही प्रसन्ना - खिली हुई ( पक्ष में प्रसन्नचित्त) वह गणिका - जुही (पक्ष में वेश्या) सुशोभित होती है, जो कि पुष्पोंके स्थान पर सुन्दर शरीर वाले भ्रमरों (पक्ष में विटों) से देखी गई है तथा पल्लवानां कुल:किसलयोंके समूह (पक्ष में कामीजनों समूहसे) उपलालित-सेवित अथवा उपभुक्त है ।।११५ ।। १. 'गणिका यूथिका वेश्या' इति विश्वलोचनः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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