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________________ १०८-११०] चतुर्विंशः सर्गः ११२७ लतेत्यादि-यत्र लतानां निकुञ्जेषु गृहेषु घनानां विपुलानां प्रसूनानां पदेन व्याजेन पुष्पायुधः कामः स एव लुब्धको व्याधस्तेन पान्थानां पथिकानामीक्षणान्येव पक्षिणस्तेषां मालां संग्रहीतुं प्रसारिताः पाशा हि सम्प्रति भान्ति ॥१०७॥ परिभ्रमषट्पदराजिकायामन्तर्गतो मौक्तिकपुष्पपुजः । मौामनङ्गस्य नियुक्तबाणाग्रारोपितः पुङ्ख इवावभाति ।।१०८॥ परिभ्रमदित्यादि--परिभ्रमतां पर्यटतां षट्पदानां भ्रमराणां या राजिका पंक्तिस्तस्यामन्तर्गतो मध्यवर्ती मौक्तिकपुष्पपुजो मुक्ताकृतिपुष्पसमूहः सोऽनङ्गस्य कामदेवस्य मौव्या ज्यायां नियुक्तस्समारोपितो यो बाणस्तस्याने भाग आरोपितः पुख इवावभाति ॥१०८॥ समुत्सुकानामथवा शुकानां पंक्तिः पतन्ती परमप्रसन्ना। मनो हरत्येव हरिन्मणीनां विनिर्मिता तोरणसन्ततिर्वा ॥१०९॥ शुकात्मनामित्यादि-समुत्सुकानां मुत्कण्ठायुक्तानां शुकानकीराणां परमप्रसन्ना पंक्तिस्तत्रापतन्ती सती हरिन्मणीनां निर्मिता तोरणसन्ततिर्वा दर्शकानां मनो हरत्येवोत्प्रेक्षालंकारः ॥१०९॥ पुरा पुरारेरुपरि प्रकोपान्मुक्तेषु कामस्य हि मार्गणेषु । प्रेमिन् परागोपचयापदेशात् तदङ्गभस्मैव समस्ति लग्नम् ॥११०॥ पुरेत्यादि-हे प्रेमिन् ! यत्र पुरा पूर्वकाले पुरारेर्महादेवस्योपरि प्रकोपान्मुक्तेषु अर्थ-जिस नन्दनवनके लतागृहों में अत्यधिक पुष्पोंके छलसे कामदेवरूपी शिकारीने पथिकजनोंके नेत्ररूपी पक्षियोंकी पंक्तिको पकड़नेके लिये इस समय मानों जाल ही फैला रक्खे हैं ।।१०७|| __ अर्थ-परिभ्रमण करनेवाले भ्रमरोंकी पंक्तिके मध्यमें स्थित मोतीके आकार वाले पुष्पोंका समूह कामदेवकी प्रत्यञ्चा पर चढ़ाये गये बाणकी मूठके समान सुशोभित होता है ।।१०८॥ अर्थ-अथवा उस वनमें उत्कण्ठित तोताओंकी पड़ती हुई परम प्रसन्न पक्ति हरे मणियोंकी बनी तोरणसन्ततिके समान दर्शकोंका मन हर लेती है ॥१०९॥ अर्थ-हे प्रेमिन् ! पूर्वकालमें कामदेवने तीव्र क्रोधसे महादेव जीके ऊपर जो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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