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________________ ११२६ जयोदय-महाकाव्यम् १०५-१०७ पिङ्गलगान्धाराख्यस्तस्य सुप्रभा नाम सुलक्षणा प्रशंसनीयगुणा महिषी चास्ति ॥१०४॥ विद्युत्प्रभा सुपुत्री ह्यन्वितनामानयोर्नमेर्भार्या । त्वामेकदा सुमेरोविहरन्तं नन्दने वनेऽपश्यत् ॥१०५।। विद्युत्प्रभेत्यादि ----अनयोद योविद्युत्प्रभा नाम पुत्री या यथार्थनामा नविद्याधरस्य भार्या सैकदा सुमेरोर्नन्दने वने विहरन्तं त्वामपश्यत् ॥१०५॥ वनं मनोज्ञं बहुकल्पवृक्षं हारप्रियानीत इहास्ति शक्रः । प्रसन्न ऐरावत एष किं वा कुबेरको नन्दनवत्ततो यत् ॥१०६॥ वनमित्यादि-यद् वनं मनोज्ञं नन्दनं नाम ततो नन्दनं स्वर्गीयवनमिव यतो कल्पवृक्षं बहुकल्पैरनेकप्रकारैर्वृक्षैर्युक्तं तद् बहुभिः कल्पवृक्षर्युक्तं यत इह हरिप्रिया नामौषधिस्तया नीतः स्वीकृतः शक्रः कुब्जो वार्जुनः वृक्षो वा पक्षे हरिप्रिया शची तया नीत इन्द्रः । प्रसन्न ऐरावतो नारङ्गनाम वृक्षः, पक्षे ऐरावतो हस्ती कुबेर एव कुबेरको नन्दीवृक्षः पक्षे धनद इति ॥१०६॥ लतानिकुज्जेषु घनप्रसूनपदेन पुष्पायुधलुब्धकेन । प्रसारिता सम्प्रति संग्रहीतुं पाशा हि पान्थेक्षणपक्षिमालाम् ।।१०७॥ गान्धार नामका रत्नपुरका राजा है और प्रशंसनीय गुणोंसे सहित सुप्रभा नामक उसकी रानी है ॥१०४।। अर्थ-उन दोनोंकी सार्थक नाम वाली विद्युत्प्रभा पुत्री है, जो नमिकी स्त्री है। उसने एक समय सुमेरुके नन्दन वनमें विहार करते हुए तुम्हें देखा ॥१०५॥ ___अर्थ-सुमेरु पर्वतका वह नन्दनवन स्वर्गके नन्दनवनके समान मनोज्ञ-मनोहर था, क्योंकि जिस प्रकार स्वर्गका नन्दनवन बहुकल्पवृक्ष-अनेक कल्पवृक्षोंसे सहित है उसी प्रकार वह नन्दन वन भी बहुकल्पवृक्ष-बहुत प्रकारके वृक्षोंसे सहित था, जिस प्रकार स्वर्गके नन्दनवनमें हरिप्रियानीतः शक्रोऽस्ति-इन्द्राणीके द्वारा लाया हुआ इन्द्र रहता है उसी प्रकार उस नन्दन वनमें हरिप्रियानोतः शुक्रः-हरिप्रिया नामक ओषधिसे सहित कुब्जक अथवा अर्जुन (कोहा) नामक वृक्ष था, जिस प्रकार स्वर्गके नन्दनवनमें प्रसन्न ऐरावतः-प्रसन्न ऐरावत हाथी होता है उसी प्रकार उस नन्दनवनमें भी प्रसन्न-उत्तम ऐरावतनारङ्गीके वृक्ष थे और जिस प्रकार स्वर्गको नन्दनवनमें कुबेर-उत्तर दिशाका दिक्पाल धनद रहता है उसी प्रकार उस नन्दन वनमें कुबेर-नन्दी वृक्ष था ||१०६॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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