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________________ ११२५ १०१-१०४] चतुवशिः सर्गः सौधर्मसंसदि निशम्य तयोः प्रशंसा शोले परीक्षितुमुपात्तमानः स्विदेव । भार्यां निजस्य चतुरामिह काञ्चनाख्यां स्माज्ञापयत्यपि रविप्रभनामदेवः ॥१०॥ सौधर्मेत्यादि--स्पष्टमिदम् ॥१०१॥ सदम्भाऽऽगत्य सा रम्भा जयभजानिसन्निधौ । उवाच वाचमित्येवं सविलासवयोदयाम् ॥१०२॥ सदम्भेत्यादि-दम्भेन च्छलेन सहिता सदम्भा मायाविनी सा रम्भा स्वर्वेश्या भूा पृथ्वीयं जायेव यस्य स भूजानिर्जय एव भूजानिस्तस्य सन्निधौ निकटदेश आगत्य विलासेन सहिताया दयाया उदयो यया भवेदित्येतादृशोमित्येवं निम्नाङ्कितां वाचमुवाच ।।१०२॥ मम वृत्तकुसुममालाऽऽमादमयी भाग्यशालिना त्वकया। हृदयेऽवधारणीया नररत्नक ! यत्नतो लभ्या ॥१०३।। ममेत्यादि--हे नरेषु सामर्थ्यशालिषु रत्नक ! श्रेष्ठतम ! त्वयैव त्वया भाग्यशालिना मम वृत्तान्यतीतानि चरितानि तान्येव कुसुमानि तेषां माला याऽऽमोदमयी प्रसन्नतादात्रीति सुगन्धसहिताऽतो यत्नतोऽपि प्रयत्नं कृत्वापि समर्जनीया स्वहृदयेऽवधारणीयास्ति ॥१०३।। विजयार्बोत्तरभागे रत्नपुरेन्द्रो मनोहरे विषये । पिङ्गलगान्धाराख्यः सुलक्षणा सुप्रभा महिषी ॥१०४॥ विजया?त्यादि-विजयाद्धपर्वतस्योत्तरश्रेण्या मनोहरे देशे रत्नपुरस्येन्द्रो राजा अर्थ-सौधर्मेन्द्रकी सभामें प्रशंसा सुनकर जयकुमार और सुलोचनाके शील की परीक्षा करनेके लिये उत्सुक रविप्रभ नामक देवने अपनी काञ्चना नामक चतुर देवीको आज्ञा दी ॥१०१।। ___ अर्थ-उस मायाविनी देवीने राजा जयकुमारके पास आकर विलास सहित दयाको प्रकट करने वाले निम्नांकित वचन कहे ॥१०२॥ अर्थ-हे नररत्न ! मेरे चरितरूप फूलोंकी माला, जो कि आनन्दको देने । वाली है (पक्षमें सुगन्धमयो है) और प्रयत्नसे प्राप्त करने योग्य है, आप भाग्यशालोके द्वारा हृदयमें धारण करने योग्य है ॥१०३॥ ___ अर्थ-विजयार्द्ध पर्वतको उत्तर श्रेणी सम्बन्धी मनोहर देशमें पिङ्गल Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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