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जयोदय-महाकाव्यम्
[९८-१०० सूक्ष्मत्वतो लुप्तमवेत्य चेतः श्रीपादयोनिव्रजताथवेतः । अवापि तत्रत्यरजस्तु तेन संशोधनाधीनगुणस्तुतेन ॥९८॥ सूक्ष्मत्वत इत्यादि-अथवा तेन जयेनेतः श्रीसदनान्निजता चेतः स्वीयं मनः सूक्ष्मत्वतः कारणाच्छीपादयोलुप्तं विलीनमवेत्य संशोधनस्य समन्वेषणस्याधीनो यो गुणस्तेन स्तुतेन सथितेन तेन तत्रत्यं रजः श्रीचरणधूरिवापि संगृहीतमित्युत्प्रेक्षालंकारः ॥९८॥
अनुष्ठितं यद्यदधीश्वरेण तत्तत्कृतं श्रीसुदृशाऽऽवरेण । येनाध्वना गच्छति चित्रभानुस्तेनैव ताराततिरेति साऽनु ॥९९॥ अनुष्ठितमित्यादि--अधीश्वरेण जयकुमारेग तत्र यद्यदप्यनुष्ठितं समाचरितं श्रीसुदृशा सुलोचनयापि तत्तदादरेण विनयपूर्वकं कृतमेतद्युक्तमेव, यतः किल चित्रभानुः सूर्यः स येनाध्वनाकाशमार्गेण गच्छति तेनैवाध्वना सा ताराणां ततिः पंक्तिरपि तमनु एति संगच्छतीति दृष्टान्तोऽलंकारः ॥९९।। वेला बभूव व्यवधानहेतुः सुलोचनातद्धवयोर्द्वये तु । सन्ध्या निशावासरयोरिवाथानुगच्छतोनिम्ननिबद्धगाथा ॥१०॥
वेलेत्यादि--अथानुगच्छतोः साद्धं व्रजतोः सुलोचना च तद्धवो जयकुमारश्च तयोईये व्यवधानहेतुनिम्ननिबद्धा गाथा परिचयरोतिर्यस्याः सा वेला निशावासरयोर्मध्ये सन्ध्येव बभूव । तु पादपूर्ती ॥१०॥
पश्चात् क्या करना चाहिये इस प्रकारका विचार करने लगे ॥९७॥ ___ अर्थ-जयकुमारने देखा कि सूक्ष्मताके कारण हमारा चित्त जिनेन्द्रदेवके चरणोंमें लुप्त हो गया है, अतः उसे प्राप्त करनेके योग्य गुणसे सहित जयकुमारने जिनालयसे निकलते हुए वहाँकी धूलि प्राप्त कर लो। धूलिको उन्होंने मानों इस भावनासे प्राप्त किया था कि इस तान्त्रिक प्रयोगसे हमारा लुप्त चित्त हमें प्राप्त हो जायगा। ____भावार्थ-जिनेन्द्रदेवकी चरणरज मस्तक पर लगा कर वे मन्दिरसे बाहर निकले ॥९८॥ ___अर्थ-जयकुमारने वहाँ जो जो कार्य किया उस उस कार्यको सुलोचनाने भी आदर भावसे किया सो ठीक ही है, क्योंकि सूर्य जिस आकाश मार्गसे जाता है ताराओंकी पंक्ति भी उसी मार्गसे उसके पीछे-पीछे जाती है ।।९९|| ___ अर्थ-जिस प्रकार आगे-पीछे चलते हुए रात्रि और दिनके बीच सन्ध्या व्यवधानका कारण होती है, उसी प्रकार सुलोचना और जयकुमार इन दोनोंके बीचमें निम्नाङ्कित परिचयसे युक्त वेला व्यवधानका कारण हुई थी ॥ ००॥
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