SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 517
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ११२२ जयोदय-महाकाव्यम् [९३-९४ ___ नमत्तिरीटोचितेत्यादि-हे जिन ! पुसा भक्तजनानां नमन्तो ये तिरीटा मौलयस्तेषचितानि यानि रत्नानि तेषां रोचिः कान्तिप्रसरणं तत् तव पदाग्राणां नखाना रुच्या किलेद्धं समृद्धं शोचिः प्रकाशो यस्य तदेततु सुकृतश्रियः पुण्यसम्पत्त्याः समागमे स्वस्तिकं नाम मङ्गलकरं वस्तु समस्तु ।।९२॥ भास्वन् प्ररोहन्त्यपि मानसाब्धावनेकशो ये कमलप्रबन्धाः । स्वद्दर्शनेनाशु पुनः स्फुटन्ति आमोदवावाः स्वयमद्धवन्ति ।।९३॥ भास्वन्नित्यादि--हे भास्वन् प्रभामय सूर्य ! अस्माकं मानसाब्धौ चित्तसागरेऽनेकशो बहुप्रकारा ये कमलप्रबन्धा मनोरथरूपाः प्ररोहन्ति जन्म लभन्ते तेऽपि त्वद्दर्शने तवावलोकने पुनः शीघ्र प्रस्फुटन्ति, यतः स्वयमेवामोदस्य सुगन्धस्य प्रसन्नभावस्य वादाः समाचारा उद्भवन्ति ॥१३॥ निरीहमाराध्य सुसिद्धसाध्यस्त्वामस्तु भक्तो विगुणं विराध्य । चिन्तामणि प्राप्य नरः कृतार्थः किमेष न स्याद्विदिताखिलार्थ ॥१४॥ निरीहमित्यादि हे विदिताखिलार्थ ! हे सर्वज्ञ ! भक्तो जनो विगुणं गुणहीनमन्यं विराध्य त्यक्त्वा त्वां निरीहमिच्छारहितमाराध्य निषेव्य सम्यक्प्रकारेण सिद्धः सम्पन्नतामाप्तः साध्यः कर्तव्यो यस्य सोऽस्तु । एष नरश्चिन्तामणि प्राप्य किं न कृतार्थः सफलकार्यः स्तात्, किन्तु स्तादेवेति वक्रोक्तिः ॥१४॥ आदरसे सहित है, वह भुक्ति-भोगसामग्री अथवा विविध सम्पत्तिसे अनुगतसहित होता है ॥२१॥ __ अर्थ हे भगवन् ! भक्त जनोंके नम्र होनेबाले मुकुटोंमें संलग्न रत्नोंकी जो कान्ति आपके नखोंकी कान्तिसे समृद्ध-अत्यन्त देदीप्यमान हो रही है, वह पुण्य रूप लक्ष्मीके समागममें स्वस्तिक मङ्गलकारी वस्तु हो ।।९२॥ अर्थ-हे देदीप्यमान सूर्य ! हमारे हृदयरूपी सागरमें जो अनेक प्रकारके कमलरूप मनोरथ अङ्कुरित हो रहे हैं, वे आपका दर्शन होनेपर शीघ्र ही विकसित हो जाते हैं और उनकी सुगन्ध अथवा प्रसन्नताके समाचार स्वयं ही उद्भूत हो जाते हैं ॥९३|| अर्थ-हे समस्त पदार्थोके ज्ञाता जिनेन्द्र ! भक्त जन अन्य गुणहीन देवोंको छोड़कर इच्छारहित आपको आराधना कर अपना साध्य-मनोरथ सिद्ध कर लेते हैं सो ठीक ही है, क्योंकि चिन्तामणि-रत्नको प्राप्त कर क्या मनुष्य कृतार्थ-कृतकृत्य नहीं होता ? अर्थात् अवश्य होता है ॥९४॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainettbrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy