________________
९१-९२] चतुर्विशः सर्गः
११२१ मोहस्येत्यादि-हे जिनेन्द्र ! त्वयि वीतरागे सति मोहः परस्मिन्नात्मभावः स तु मोहं ऊहेनाधुनाहं किं करोमीति वितर्कमाप्तः। रागः स्वार्थस्य साधकतया प्रेम स सागस्त्वं सापराधत्वमगात् किल नैव तिष्ठति । कामश्च मैथुनभावः स निकामो निष्क्रियो निरीहो वा। त्वयानुविद्धा प्रभाविता सा कमलाप्यात्मनि एव मलं यस्याः किलामलाऽभूदिति वयं वदामः । बहुप्रभावोऽयमलंकार ॥९०॥ निजं जिन त्वां प्रवदामि भक्त्या स्वार्थी परः सम्भवितास्ति शक्त्या । विलोमतास्मिन्नखरप्रयुक्त्या त्वदादरी योऽनुगतः स भुक्त्या ॥९१॥
निजमित्यादि-हे जिनाहं त्वां जिनमेव निजमिति प्रवदामि भक्त्या गुणानुरागवशेन शवविभागवशेन वा, परो यः कोऽपि नरः स तु स्वार्थो सम्भवितास्ति शक्त्या यथाशक्ति स्वार्थमेव पूरयति । यदि जिन एव निज इति तदा विलोमतात्र कुतो जातेति चेन्नखरप्रयुक्त्याऽत्र सा यया खरं तीक्ष्णमेव करानजना नखरं वदन्ति तथा त्वामपि यतस्त्ववादरी यो जनः स भुक्त्या भोगसामग्रयाऽखिलप्रकारया सम्पत्या वाऽनुगतो युक्तो भवति ॥९॥ नमत्तिरीटोचितरत्नरोचिः पवाग्ररुच्या तव चेद्धशोचिः । समागमे स्वस्तिकमेव वस्तु समस्तु पुंसां सुकृतश्रियस्तु ॥९२॥
अर्थ-हे जिनेन्द्र ! आपके वीतराग होनेपर मोहको मोह हो गया, अर्थात् वह (मा + ऊह) में क्या करूं इस वितर्क-विचारसे रहित हो गया । रागसागस्त्व अपराध सहित अवस्थाको प्राप्त हो गया (आगसाऽपराधेन सहितः सागा स्तस्य भावः सागस्त्वम्)। और आपसे अनुविद्ध-प्रभावित कमला-लक्ष्मी स्वयं ही कमला (के-आत्मनि मलं यस्याः सा कमला) आत्माके विषयमें मल-मलिनताको प्राप्त हो गई।
भावार्थ हे भगवन् ! आप मोह-रहित हैं, रागरहित हैं और भौतिक लक्ष्मीसे रहित हैं ।।९०॥ ___ अर्थ हे जिन ! मैं भक्तिसे आपको निज कहता हूँ । अन्य लोग तो स्वार्थी होते हैं, वे शक्तिके अनुसार स्वार्थ ही सिद्ध करते है । जिनका निज कैसे हो गया अर्थात् शब्दोंमें विलोमता विपरीतता कैसे हो गई, तो नखर शब्दके समान हो गई। भाव यह है कि मनुष्यके कराग्र-हाथके अग्रभागको जो कि खर-तीक्ष्ण होता है, उसे लोकमें नखर-तीक्ष्ण नहीं (पक्ष में नाखून) कहा जाता है। इसी प्रकार जो निज थे वे जिन कहलाने लगे। तथा जो मनुष्य त्वदादरी-आपमें
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org