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________________ ८१-८३ ] चतुर्विशः सर्गः पदारविन्देषु पदारविन्दको मनोहराष्टाङ्गमयों प्रभोर्जयः । तनुं स्वकीयामिव चातनूत्तमां समर्पयामास समग्रतो बलिम् ।।८१॥ पदारविन्देष्वित्यादि-एवं जयो नाम राजा स पदारस्य चरणरजसो विन्दकोऽनुज्ञावेदनकरो भवन् प्रभोः पदारविन्देषु चरणकमलेषु मनोहराणि अष्टावङ्गानि पूर्वकथितानि तन्मयों बलि पूजां स्वकीयां तनुमिव चातनूतमा बलिवक्षेऽत्यन्तोत्तमां तनुपक्षे चातनोः कामदेवस्य यथोत्तमा तथोत्तमा समग्रतः पूर्णरूपेण समर्पणमासेत्युपमालंकारः ।।८१॥ सुदेवमन्त्रा जपतः सुरीतितः शये समापुर्गुणिनोऽवतारणम् । सितोपलाक्षावलिदम्भसम्भवा विशुद्ध बोजस्फुटशुद्धवर्णकाः ॥८२॥ सुदेवमन्त्रा इत्यादि-सुरीतितो यथागमोक्तरीति तो जपतो जपं कुर्वतोऽस्य गुणिनो जयकुमारस्य शये हस्ते सुदेवमन्त्राः परमेष्ठिवाचका मन्त्रा अवतारणमवतारस्यावतरणस्य गं ज्ञानं तदवतारणं समापुः । कथं समापुरिति चेत् ? सितोपलाक्षाणां शुद्धस्फटिकनिमितमणीनामावलिः पङ्क्तिस्तस्या दम्भादेव सम्भवो येषां ते विशुद्धभ्यो बोजेभ्यः स्फुटः प्रकटीभूतः शुद्धः स्वच्छो वर्ण एव वर्णको येषां ते तथेति किलोपह्न त्यलंकारः ।।८२॥ तदागसां संहरणाभिलाषिणः पयोजलक्ष्मी मुषि पाणिपल्लवे । षडङ्क्रिमाला ह्यनुषङ्गिजन्मिनां रराज रुद्राक्षपरम्परा तराम् ॥८३॥ सन्देश स्थान स्वरूप अर्हन्त भगवान्के चरणों में स्वयं अपने मस्तकके समान आकृति वाले नारियलको शीघ्र ही समर्पित किया ।।८०॥ ____ अर्थ-इस प्रकार चरणरजको प्राप्त करने वाले जयकुमारने प्रभुके चरण कमलोंमें पूर्वोक्त जल-चन्दनादि आठ अङ्गोंसे सहित उस अर्घरूप पूजाको संपूर्ण रूपसे समर्पित किया, जो अपने शरीरके समान थी, अर्थात् जिस प्रकार अपना शरीर हस्तपादादि आठ अङ्गोंसे सहित है, उसी प्रकार वह अर्घरूप पूजा भी जल-चन्दनादि आठ अङ्गोंसे सहित थी और जिस प्रकार अपना शरीर अतनूत्तमअनङ्ग-कामदेवसे सुन्दर था, उसी प्रकार वह अर्घरूप पूजा भी अतनूत्तमाअत्यन्त उत्तम थी ।।८१॥ __ अर्थ-आगमोक्त रीतिसे जाप करने वाले गुणवान् जयकुमारके हाथमें परमेष्ठिवाचक उन मन्त्रोंने अवतरण किया, जो शुद्ध स्फटिककी मालाके बहाने बीजाक्षर रूप शुद्ध वर्णरूप अक्षरोंसे सहित थे। भावार्थ-जयकुमारने हाथमें स्फटिककी माला लेकर परमेष्ठि वाचक मन्त्रका जाप किया ॥८२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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