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________________ १११२ जयोदय-महाकाव्यम् [ ६८-७० निजोत्तमाङ्गत्वमुवाच तच्छिरोऽधुनोन्नतं प्राप्य पवद्वयं गुरोः। तनुस्तु भूमेरुपगम्य संगम समाप सख्यादिव कण्टकोद्गमम् ॥६८॥ निजोत्तमाङ्गत्वमित्यादि-तच्छिरो जयकुमारस्य मस्तकं तबधुना गुरोरर्हत उन्नतं पदद्वयं प्राप्य लब्ध्वा निजस्योत्तमाङ्गत्वं श्रेष्ठत्वमुवाच । तस्य तनुस्तु भूमेः संगम सम्पर्कमुपगम्य लब्ध्वा सख्यादिव तनुरिव भूमिरपि जयस्य सम्बन्धिनीति समानधर्मतयेव कण्टकोब्गमं रोमाञ्चभावं समापेत्युत्प्रेक्षालंकारः ॥६८॥ त्रिधा परिक्रम्य जयः क्रमादयं महामनास्तस्य जगत्पतेः पुरः। तदागतानागतवर्तमानकान् परिभ्रमान् सूचयति स्म चात्मनः ।।६९॥ विधेत्यादि-तदायं महामना जयस्तस्य जगत्पतेः पुरस्त्रिधा परिक्रम्यागतानागतवर्तमानकानात्मनः स्वस्य परिभ्रमान् सूचयति स्म ॥६९॥ समाप तापत्रयभिच्छवे वे जिनेन्द्रचन्द्रस्य मुदं सुदर्शने । निधेरिवाराज्जनुषाप्यकिञ्चन: स किञ्च नर्मप्रतिकर्मवित्तदा ॥७०॥ समापेत्यादि-किञ्चास्मिन् भवे जन्मनि स नर्मणो विनोबस्य प्रतिकर्मवित् कारणज्ञस्तापत्रयभिदो जन्मजरामृत्युरूपसन्तापत्रितयोच्छेदकस्य जिनेन्द्र एव चन्द्र आह्लादकत्वात्तस्य सुवर्शनेऽवलोकने सदा जनुषा जन्मनाप्यकिञ्चनो दरिद्रः स निधेर्वाञ्छितबायकस्यारात् तत्कालं दर्शन इव मुदं हर्ष समवापेत्युपमालंकारः ।।७।। अर्थ-इस समय राजा जयकुमारके शिरने प्रभुके उन्नत चरणयुगलको प्राप्त कर अपना उत्तमाङ्गपन प्रकट किया, अर्थात् मैं सब अङ्गोंमें उत्तमाङ्गउत्कृष्ट अङ्ग हूँ, इसीलिये तो मुझे भगवान्के चरणयुगलका संपर्क प्राप्त हुआ। परन्तु शरीर पृथिवीका संगम पाकर समान भावसे ही मानों कण्टकोद्गमको प्राप्त हुआ, अर्थात् जिस प्रकार पृथिवीमें कण्टक उत्पन्न होते हैं, उसी प्रकार उनके शरीर में भी कण्ठक-रोमाञ्च उत्पन्न हो गये ।।६८॥ ___अर्थ-उस समय महामना जयकुमारने क्रमसे तीन प्रदक्षिणाएं देकर जगत्पति जिनेन्द्रदेवके आगे यह सूचित किया था कि हे प्रभो ! मैंने इसी प्रकार भूत, भविष्यत् और वर्तमान कालमें परिभ्रमण किया है ॥६९।। ___अर्थ-एक बात यह भी है कि इस जन्ममें विनोदके कारणोंको जानने वाले जयकुमारने जन्म-जरा-मृत्युरूप त्रिविध तापको नष्ट करने वाली छविसे युक्त जिनेन्द्रचन्द्रका दर्शन होनेपर वह आनन्द प्राप्त किया, जो जन्मसे दरिद्र मनुष्यको निधिके दर्शनसे होता है ।।७०॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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