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________________ ७१-७३ ] चतुर्विंशः सर्गः क्रमोच्च नैवेद्यसुराजिराजितैः पुमानमत्रैः पुरतः प्रसारितैः । बबन्ध तां स्वर्गमनाथ पद्धतिमिवेश सेवासमितात्मसम्मतिः ॥ ७१ ॥ क्रमोच्च नैवेद्येत्यादि - ईशस्य भगवतः सेवायां समिता संयोजिताऽऽत्मसम्मतिर्येन स पुमान् जयकुमारः उच्चा या नैवेद्यस्य सुराजि: पंक्तिस्तया राजितैः सुशोभितैरमत्रः पात्रे : पुरतोऽग्र प्रसारितैस्तां स्वर्गमनाय पद्धत सोपानपंक्तिमिव बबन्धेत्युत्प्रेक्षालंकारः ॥७१॥ १११३ गुरोरिहाग्रे खलु लज्जितेव भूर्बभूव गुप्तावयवा समग्रजैः । धवं समालोक्य निरन्तरागत समर्चना वर्तनवर्तनव्रजैः ॥७२॥ गुरोरित्यादि - समग्र जातैः समग्रजैः समर्चनस्य पूजनस्यावर्तनं प्रवर्तनं यैस्तेषां वर्तनानां पात्राणां कलशकरकस्थाल्यादीनां व्रजैः समूहैः कीदृशैस्तनिरन्तरागतैरन्तरवजितैस्तैः कृत्वा भूः पृथ्वी गुरोः श्रीमतोऽग्र े धवं स्वामिनं सोमपुत्र " समालोक्य लज्जिलेव खलु गुप्तावयवा संवृताङ्गोपाङ्गा बभूवेत्युत्प्रेक्षालंकारः ॥ ७२ ॥ प्र जलाञ्जलिः स्वस्य किलाघकर्मणे समर्पितः श्रीपतिपादतपैर्णे । मनस्विनासौ सलिलार्पणच्छलाद्यतः समन्तात् कलिलावनं बलात् ॥ ७३ ॥ जलाञ्जलिरित्यादि[-तत्र प्रथमं तेन मनस्विना श्रीपतिपादयोस्तर्पणे पूजने सलिलार्पणस्य जलोत्सर्गस्य च्छलात् किल यतो बलात् प्रभावात् कले: कलहस्य लावनमुच्छेदनं स्यात् स जलाञ्जलिरेव स्वस्याधकर्मणे पापाय समर्पितः । यद्वा यतोऽघकर्मणो अर्थ – जिनेन्द्रकी सेवामें अपनी सद्बुद्धिको संयोजित करनेवाले पुरुषरत्नजयकुमारने क्रमसे सजाई हुई नैवेद्यकी उच्च पंक्तियोसे सुशोभित पात्रोंसे स्वगं जानेके लिये मानों मार्ग ही बांध रक्खा था ॥ ७१ ॥ il अर्थ – आगे रखे हुए पूजामें काम आने वाले व्यवधानरहित बर्तनोंके समूह पृथिवो ढक गयी थी, उससे वह ऐसी जान पड़ती थी कि गुरु भगवान् के आगे अपने पति जयकुमारको देख लज्जित होकर उसने मानों अपने अवयवोंको संत ही कर लिया हा-छिना लिया हो। गुरुजनों के सामने पतिको देख स्त्रियाँ लज्जित होती ही हैं ॥७२॥ अर्थ- विचारशील जयकुमारने जिनेन्द्रदेव के चरणों की पूजा में जल अर्पित करनेके छलसे मानों अपने पापकर्मके लिये ही जलाञ्जलि दीं, क्योंकि उसके प्रभावसे बलपूर्वक कुलिलावन -कलहका उच्छेद होता है।, अथवा जिस पाप Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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