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६०-६१ ]
चतुर्विंशः सर्गः
११०९.
असावित्यादि - अथासौ राजाधिराट् काशिभूपभूः सुलोचना सेव परी सर्वोत्तम -- सुन्दरी तस्याः परीरम्भे समालिङ्गने परः संलग्नोऽधुना किल चिरादाप्तः संलब्ध इति किल समाइया स्नेहयुक्तयाप्यशुष्कया मृत्स्नया मृत्तिकया भालमुखेषु प्रसिद्धेष्ववयवेषु परिरम्भितः समालिङ्गितोऽभूत् । उत्प्रेक्षालंकारः ॥५९॥ अथामले वारिविलासिपत्वले विचारयँस्तद्व्यपदेशसंहतिम् । निरञ्जनैः स्नातकमन्त्रसंस्कृतेस्तनुं स्म तोयैः स्नपयत्य सौस्वाम् ॥ ६०॥
अथामल इत्यादि - अथामलेऽपि वारिविला सिपत्वले निर्मलजलतटाकेऽपि तस्य कर्वममीनादेः प्रसङ्गस्तस्य संहति समायोगं विचारयन् किल स्नातकमन्त्रेण संस्कृतैस्तोये रसौ जयः स्वां तनुं स्नपयति स्म ॥६०॥ अनेकधा तानितसंगुणोक्तिभृत् पवित्रितान्तःकरणप्रसक्तिमत् । विशालमालम्बितवान् दुकूलकं सुनिर्मलं जैनवचोऽनुकूलकम् ॥ ६१ ॥
अनेकधेत्यादिइस उक्तप्रसङ्गो जयकुमारः स्नानानन्तरं विशालमसंकीर्ण दुकूलकं वस्त्रमालम्बितवान् जग्राह । कीदृक् तत् ? जैनवचोऽनुकरोति यत्तत् जैनवचोऽनुकूलक सुनिर्मलं स्वच्छं पवित्रितस्यान्तःकरणस्य हृदयस्य प्रसक्तिमत् प्रसन्नताद्योतकं तथाऽनेकधातानितानां संगुणानां समीचीनानां तन्तूना मुक्तिभृत् ॥ ६१ ॥
अर्थ - मुखप्रक्षालनके बाद जयकुमारने मस्तक आदि अङ्गोंमें उत्तम मिट्टी लगायी, उससे ऐसा जान पड़ता था कि अब तक जयकुमार सुलोचनाके आलिजनमें ही तत्पर रहे हैं, मुझे अवसर ही नहीं मिल सका। अब अवसर देख पृथिवीरूप स्नेहसे आर्द्र हो उनके मस्तक आदि अङ्गोंका आलिङ्गन कर रही हो ||५९|| अर्थ -- निर्मल जलसे सुशोभित सरोवरमें कर्दम तथा मछली आदिके संयोग-का विचार करते हुए जयकुमारने स्नातक मन्त्रसे सुसंस्कृत अत एव पवित्र जलसे: ही अपने शरीरको नहलाया था ॥ ६०||
अर्थ - स्नान के बाद जयकुमारने उस विशाल मात्राके अनुरूप वस्त्रको धारण किया जो जिनेन्द्र भगवान् के वचनोंका 'अनुकरण करने वाला था, क्योंकि जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् के वचन अनेकधातानितसंगुणोक्तिभृत् - अनेक प्रकार से विस्तृत समीचीन गुणोंके कथनको धारण करनेवाला है, उसी प्रकार वह वस्त्र भी अनेकधातानिकसंगुणोक्तिभृत् - अनेक प्रकार से विस्तारित समीचीन सूत्रों - तन्तुओं के कथनको धारण करने वाला था। जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान् के वचन पवित्रितान्तःकरणप्रसक्तिमत् - पवित्र हृदयके सम्बन्धसे सहित हैं, उसी प्रकार वह वस्त्र भी पवित्र हृदयके अनुकूल था । जिस प्रकार जिनेन्द्र भगवान्के वचन विशाल द्वादशांग में विस्तृत हैं, उसी प्रकार वह वस्त्र भी विशाल - समुचित रीति-
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