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११०८ जयोदय-महाकाव्यम्
[५८-५९ शोभा वा वरं श्रेष्ठं वर्ण रूपं वा शास्तीति वरवर्णशासिका वरवणिनी बातोऽभ्यङ्गचिः अभ्यङ्गस्योद्वर्तनस्य तैलमर्दनस्य वा रुचिः शोभा यस्यास्तथाङ्गमभि अभ्यङ्गं रुचिः कान्तिर्भवति यया साऽभ्यङ्गरुचिस्तथा पयोधरोदारघटा पयोधरो जलभरितश्चोदारश्च घटो भवति यत्र तथा पयोधरौ स्तनावेवोदारौ घटो कुम्भो यस्यास्सा, तथा विधुः कर्पूरः स उपमानं मुखं यस्यास्सा, सुखस्याशिका यत्र कृतायां वृतायां वा सुखं भवति सा किलेति समासोक्तिः ॥५७॥
तदास्यसंशोधनसाधनाब्भरे छविच्छलेनावतरन्त्यदः करे । पचेलिमा द्यौनिजगाद सत्कृतिममुष्य हूतापि परैरनागतिः॥५८॥
तदास्येत्यादि--तदा तस्मिन्नवसरे किलास्यं मुखं तस्य संशोधन प्रक्षालनं तस्य साधनं कारणमपां भरो यत्र तस्मिन् जलपूर्णेऽदः करे जयकुमारस्य हस्तेऽवतरन्ती प्रतिबिम्बं ददती पचेलिमा परिपाकं प्राप्ता द्यौः समुच्चगतिः स्वर्गलक्ष्मीर्वा सामुष्य सत्कृति जगाद. समस्ययोवाचः या परैहूं ताप्यनागतिनांगच्छति ॥५८॥ असो समझेष्वथ काशि भूपभू-परीपरीरम्भपरोऽधिराट् चिरात् । यतः किलाप्तः परिरम्भितोऽभितः समाया भालमुखेषु मृत्स्नया ॥५९।।
पयोधरोदारघटा-जलको धारण करनेवाले बड़े-बड़े कलशोंसे सहित थी, विधुपमानार्हमुखा-कपूरकी उपमाके योग्य प्रारम्भसे सहित थी, सुखाशिका-सुख प्रदान करनेवाली थी और वरवर्णशासिका-उत्तम रूपको प्रदान करने वाली थी।
भावार्थ-समाप्लवश्री स्त्रीलिङ्ग शब्द है, अतः विशेषणोंकी सदृशतासे उसमें स्त्रीका आरोप किया है, अर्थात् स्नानलक्ष्मी रूपी स्त्रीने जयकुमारको स्वीकार किया। इस पक्ष में विशेषणोंकी अर्थ योजना इस प्रकार है । अभ्यङ्गरुचि-पतिके अङ्ग-शरीरमें जिसकी रुचि है, शुचि-स्वभावसे जो उज्ज्वल रूपको धारण करनेवाली है। पयोधरोदारघटा-घटके समान जिसके बड़े-बड़े स्तन है, विधूपमानाहमुखा-जिसका मुख चन्द्रमाकी उपमाके योग्य है, सुखाशिका-जो सुखकी आशा रखता है और वरवर्णशासिका-पतिके रूप अथवा यशका वर्णन करने वाली है ॥५७॥
अर्थ-स्नानके समय मुखप्रक्षालनके साधनभूत जलके समूहसे सहित जयकुमारके हाथमें प्रतिबिम्बके छलसे अवतीर्ण हुई परिपाकको प्राप्त स्वर्गलक्ष्मी अथवा उच्च गति इनके पुण्य कार्यको सूचित कर रही थी। वह स्वर्गलक्ष्मी kedT उच्च गति जो कि दूसरोंके द्वारा बुलाने पर भी नहीं आती है ॥५८॥
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