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________________ ११०६ जयोदय-महाकाव्यम् [५३-५४ गूढं पयो रसं धरतीति तां तथा गूढावप्रकटौ पयोधरौ स्तनो यस्यास्तां ह्रियेव लज्जयेव किल संक्षिप्तपदामल्पशब्दां लघुमन्दचरणक्षेपां वा गिरां तथोक्तां सुलोचनाया वाणी नव्यवधूमिवानुभूय भूयो वारं वारं मुदां हर्षाणां प्रतिभूः स्वामी सोऽभूत् बभूव । श्लेषोपमानुप्रासश्चालंकारः ।।५२॥ शिलोच्चयं साम्प्रतमप्रमत्तवान् रुरोह सच्छुक्लमिवात्मचिन्तनम् । यती विशुद्धयेव महागुणाश्रयः समन्वितः सोऽथ नतवा जयः ॥५३॥ __शिलोच्चयमित्यादि-अथ साम्प्रतमप्रमादवान् कर्तव्यविस्मृतिः प्रमावस्तब्रहितो जयो हस्तिनागपुराधिपः स नतभ्रुवा नते ध्रुवौ यस्यास्तया सुलोचनया समन्वितः महागुणानां चाष्टमादिगुणस्थानामाश्रयः सच्छुक्लमत्यन्तनिर्मलमात्मचिन्तनं ध्यानमिव शिलोच्चयं पर्वतमारुरोह चटितवानित्युपमालंकारः ॥५३॥ ददर्श देवाश्रममुत्तमं तदा तदाचरन् सत्वरमुद्भवन्महाः । महामना मूर्तिमदेव सत्कृतं कृतं परैः श्रीधरभूप्रमोदवः ॥५४॥ ददर्शेत्यादि-तदा कैलासारोहणकाले उद्भवति प्रस्फुरति मह उत्सवो यस्य सः महामना विचारशीलः श्रीधरभूः सुलोचना तस्यै प्रमोवं वदातीति यः सः, आचरन्नितस्ततः परितो गच्छन् सन् सत्वरं शीघ्रमेवोत्तमं तद्देवस्याहत आश्रमं स्थानं यत्परैर्महापुरुषैः कृतं निर्मितं मूर्तिमत् सत्कृतं पुण्यमेव किल ववर्शेत्युत्प्रेक्षा ॥५४॥ बार-बार हर्षके स्वामी हुए, जोकि नवीन वधू-नवोढाके समान थी, क्योंकि जिस प्रकार वह वाणी गुणाकर-श्लेष-प्रसाद-माधुर्य आदि गुणोंकी खान थी उसी प्रकार नवीन वधू भी गुणाकर-सौन्दर्य आदि गुणोंकी खान होती है। जिस प्रकार वह वाणी गूढपयोषरा-गूढरसको धारण करने वाली थी उसी प्रकार नवीनवधू भी गूढपयोधरा-अप्रकट स्तनोंको धारण करने वाली होती है और जिस प्रकार वह वाणी लज्जासे ही मानों संक्षिप्तपदा-संक्षिप्तपद विन्यास वाली थी उसी प्रकार नवीन वधू भी लज्जावश संक्षिप्तपदा-थोड़ी बोलती है, अथवा अल्पपद संचार करती है-थोड़ा चलती है ॥५२॥ ___ अर्थ-जिस प्रकार महान् गुणोंके आश्रयभूत प्रमादरहित मुनिराज विशुद्धिके द्वारा अत्यन्त निर्मल आत्मचिन्तनपर आरूढ होते हैं, उसी प्रकार सावधान एवं शूरवीरता आदि गुणोंके आधारभूत कुमार सुलोचनाके साथ शुक्लवर्ण कैलास पर्वतपर आरूढ हुए ॥५३॥ - अर्थ-कैलास पर्वतपर चढ़ते समय शीघ्र ही जिनका आत्मतेज उभर रहा है, जो विचारशील हैं, सुलोचनाको आनन्द देनेवाले हैं तथा सब ओर विचरणकर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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