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चतुर्विशः सर्गः मत्तहस्तिनियुक्तः पक्षे वन्दनवारैर्युक्तः । समर्जुः सरला निश्रेणिः खजूरवक्ष: सोपान पङ्क्तिर्वा यस्य सः। उपात्तः स्वीकृतस्तोरणो नाम वृक्षो द्वारमुखं वा येन स: । समुद्ध उन्नतो नियंहः शृङ्गो द्वारप्रदेशश्च तखरो धारक इति किलोपमा 'निर्य हो द्वारि । निर्यास शिखरे नागवन्तके' इति विश्वलोचने ॥५०॥ विपल्लवानामिह सम्भवोऽपि न विपल्लवानामुत शाखिनामपि । सदारमन्तेऽस्य विहाय नन्दनं सदा रमन्ते रुचिततस्तः सुराः ॥५१॥
विपल्लवानामित्यादि-इह पर्वते विपद आपत्तेलंवानां लेशानामपि सम्भवो नास्ति । उत पुनः विपल्लवानां पत्ररहितानां शाखिना वृक्षाणामपि सम्भवो नेवास्ति । तत एव सुरा देवा दारेभ्यः सहितं सदारं यथा स्यात्तथा रमन्ते सुखं लभन्तेऽस्यान्ते प्रान्ते सदैव नित्यं प्रति नन्दनं स्वर्गवनमपि विहाय रुचितः प्रीतिभावात् । यमकालंकारः ॥५१॥ गुणाकरां गूढपयोधरां नराधिराड् गिरा नव्यवधूमिवादरात् । ह्रियेव संक्षिप्तपदां स्वयं तदानुभूय भूयः प्रतिभूरभून्मुदाम् ।।५२॥
गुणाकरामित्यादि-नराधिराट् स जयकुमारस्तदा गुणानामाकरः संचयो यत्र तां
पूर्ण-वानरोंसे व्याप्त है। जिस प्रकार हमारा घर धृतमेत्तवारण-वन्दनवारोंको धारण करने वाला है, उसी प्रकार यह पर्वत भी धृतमत्तवारण-मदोन्मत्त हाथियोंको धारण करने वाला है। जिस प्रकार हमारा घर समजुनिःश्रेणिएक बराबर एवं सीधी सीढ़ियोंसे सहित है, उसी प्रकार यह पर्वत भी समर्जुनिश्रेणि-एक सदृश एवं सीधे खजूंरके वृक्षोंसे सहित है। जिस प्रकार हमारा घर उपात्ततोरणः-द्वारके अग्र भागसे सहित है उसी प्रकार यह पर्वत भी उपात्ततोरण-तोरण नामक वृक्षोंको ग्रहण करने वाला है और जिस प्रकार हमारा घर उद्धनि!हषरः-ऊँचे द्वारप्रदेशको धारण करने वाला है, उसी प्रकार यह पर्वत भी उद्धनि!हधरः-ऊँचे शिखरको धारण करने वाला है ॥५०॥
अर्थ-इस पर्वतपर विपल्लवानां-विपत्तिके अंशोंका और विपल्लवानां शाखिनां-किसलयरहित वृक्षोंका सद्भाव सम्भव नहीं है, इसीलिये देव नन्दनवन को छोड़कर इसके प्रान्त भागमें स्त्रियों सहित सदा रुचिपूर्वक क्रीड़ा करते हैं ॥५१॥
अर्थ-राजा जयकुमार उस समय सुलोचनाकी उस वाणीका अनुभव कर १. 'स्यान्मत्तवारणः पुंसि मददुर्दान्तवारणे।
क्लीबं प्रासादवीथीनां वरण्डे चाप्यपाश्रये ॥' इति विश्व० । २. 'निःश्रेणिरधिरोहिण्यां खजूरी पादपे स्त्रियाम्' इति विश्व० ।
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