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________________ हे नृप ! हे राजन् ! अर्हन्त भगवानके चतुर्थ वचनकी चेष्टाका संदेश देने वाले प्रातःकालीन दीप्तिके सुन्दर समयमें न रात है, न दिन है, न अन्धकार है, न प्रकाश है, न नक्षत्रोंका अनुभवन है और न सूर्यकी दीप्तियां हैं। भावार्थ-जिनेन्द्र देवके द्वारा प्रतिपादित स्दादस्ति आदि सात वचनोंमें चतुर्थ वचन 'स्यादवक्तव्य है' अर्थात् पदार्थ न अस्ति रूप है, न नास्ति रूप है, न अस्ति नास्ति रूप है किन्तु अवक्तव्य है क्योंकि एक ही साथ अस्ति नास्ति ये दो विरोधी धर्म प्रधानतासे नहीं कहे जा सकते। इसी तरह इस प्रभात कालमें न तो रात है, न अन्धकार है, न प्रकाश है, न नक्षत्रोंका अनुभवन-सद्भाव है और न सूर्यको रश्मियां हैं किन्तु प्रकाश और अन्धकारको एक प्रवक्तव्य दशा है । इसी सन्दर्भका श्लेषसे ओत-प्रोत एक पद्य और देखियेनिमलतां व्रजति भो क्षणदाप्रणीति स्ति प्रदीपभुवि कापिलसत्प्रतीतिः । स्याद्वाद एव विभवः प्रतिपल्लवं स भात्यहंतो दिनकरस्य यथावदंशः ॥६४॥ हे महानुभाव ! सुनो, यह जो क्षणदा प्रणीति-रात्रिकी चेष्टा है वह निर्मूलताको प्राप्त हो रही है अर्थात् रात्रि समाप्त हो रही है (पक्ष में बौद्धोंकी क्षणदा प्रणीति-क्षणिक मत नीति निर्मल हो रही है, प्रदीप भुवि-दीपकोंके स्थानमें कुछ भी सुन्दर प्रतीति नहीं है अर्थात् दीपकोंकी प्रभा समाप्त हो गई है अथवा प्रदीप-ह्रस्व दीर्घ, और प्लुत संज्ञक स्वरोंके स्थान भूत शब्दोंके उच्चारणमें ह्रस्व, दीर्घ, प्लुत स्वरका भेद नहीं जान पड़ता (पक्षमें कापिल-कपिलानुयायी सांख्योंको कोई प्रणीति-नित्यवादकी स्थापना नहीं है । वृक्षोंके पल्लव-पात पात पर विभवो वादः स्यात्-पक्षियोंका कलरव हो रहा है अथवा पल्लव पल्लव-अक्षर अक्षरमें अर्हन्त भगवान्का स्याद्वाद-कथंचित् वाद ही दिनकरके अंशके समान विभव-वैभवको प्राप्त हो रहा है । कमलिनीके सुन्दर दलों पर पड़ी ओसकी बूंदोंका वर्णन देखियेसद्वारिशौक्तिकति स्वयमेव तेषु सम्बिभ्रती कमलिनी कलपल्लवेषु । उद्घाटितस्वनयना निजवल्लभस्या __ सौ स्वागतार्थमभियाति हिनेकवश्या ॥६७॥ यह प्रेम परायणा कमलिनी कमलरूप नेत्र खोल कर अपने पति सूर्यके स्वागतके लिये कोमल पल्लव रूप हाथों में जल बिन्दु रूप मोतियोंकी पंक्तिकी धारणा करती हुई स्वयं सुशोभित हो रही है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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