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________________ ४७-४८] चतुर्विशः सर्गः ११०३ अधस्तनारम्भनिरुद्धभूतलः प्रयाति कूटैः पुरुहूतपत्तनम् । कुतः सरन्ध्रोऽवनिभृत्सु मानितोऽथवा पुरोः पादसमन्वयो ह्ययम् ॥४७॥ अधस्तनेत्यादि-अयं गिरिरधस्तनारम्भेण नोचैर्भवेन प्रसारण निरुद्धमभिव्याप्त भूतलं येन स तथा रन्ध्रेर्गह्वरैः सहितोऽपि किलावनिभृत्सु शैलेषु मानितोऽस्तीति कुतो यतो नीचकार्यकरः कपटधरश्च जनो नोपैति स्वर्ग दुर्गुणधरश्च भूपैर्मान्यो न भवतीति विरोधोऽथवा ह्ययं पुरोः श्रीनाभेयस्य पादयोश्चरणयोः समन्वयः सम्पर्को यस्य सोऽयमस्ति तत एवाभूतपूर्वप्रभाववानिति परिहारः । विरोधाभासोऽलंकारः ॥४७॥ बृहन्नितम्बा तिलकाङ्कभृच्छिरा निरन्तरोदार पयोधरा तराम् । सविभ्रमाऽपाङ्गतयान्विता.श्रिया विभाति भित्तिःसुभगास्य भूभृतः॥४८॥ बृहन्नितम्बेति -अस्य भूभृतः पर्वतस्य भित्तिः सा सुभगा सौभाग्यशालिनी विभाति यतोऽसौ बृहन्नितम्बा समुच्चशिखरा पक्षे तून्नतकटिपृष्ठभागा, तथा तिलकस्य नाम वृक्षस्य पक्षे ललाटभूषणस्याङ्कभृच्चिह्नयुक्तं शिरः शृङ्गपक्षे मस्तकं यस्याः सा, निरन्तरं ___ अर्थ-यह पर्वत अपने अधस्तन-नीच कार्योंसे पृथिवी तलको व्याप्तकर रहा है (पक्षमें नीचेके विस्तारसे पृथिवी तलको घेर रहा है), कूट-कपटमय कार्योंसे (पक्षमें शिखरोंसे) स्वर्गको जा रहा है-स्वर्गका स्पर्श कर रहा है और सरन्ध्र-छिद्रोंसे सहित है (पक्ष में गुफाओंसे सहित है)। इतने दुर्गुणोंसे युक्त होकर भी यह अवनिभृत्-पर्वतों अथवा राजाओंमें सन्मानित क्यों है ? क्योंकि जो नीच कार्य करता है तथा अनेक दुर्गुणोंसे युक्त होता है वह स्वर्ग नहीं जाता । इस विरोधका परिहार यह है कि इसका आदि जिनेन्द्रके चरणोंके साथ सम्पर्क हुआ है, यहाँसे उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया है, उन्हींके चरण सम्पर्कका यह प्रभाव है। पूज्य पुरुषोंके चरणोंको सेवासे दुर्गुणी मनुष्य भी सद्गतिको प्राप्त हो जाते हैं ॥४७॥ ___ अर्थ-हे प्रियवर ! रसभूभूत-पर्वत (पक्षमें राजा) की भित्ति-दीवाल (पक्षमें स्त्री) शोभासे अत्यधिक सुशोभित हो रही है। यहाँ भित्ति शब्दके स्त्रीलिङ्ग होनेसे उसमें स्त्रीका आरोप किया गया है। दोनों पक्षोंमें विशेषणोंकी योजना इस प्रकार है-भित्तिपक्षमें बृहन्नितम्बा-विशाल मध्य भागसे सहित है, स्त्रीपक्षमें बृहन्नितम्बा-विस्तृत नितम्बोंसे सहित है । भित्तिपक्षमें तिलकाङ्कभृच्छिरा:-तिलक वृक्षसे युक्त शिखरसे सहित हैं, स्त्रीपक्षमें-तिलकाङ्कभृच्छिराःकुङ्कुमके तिलकरूप चिह्नको धारण करने वाले मस्तकसे सहित है । भित्ति Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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