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________________ ११०२ जयोदय-महाकाव्यम् [ ४५-४६ गृहीतः कठोरताया अन्वयो यया तथाभूतापि सती भाग्यतो मत्सुकृतोदयात् तव प्रिया प्रीतिकर्यस्तीत्यहो आश्चर्यम् ॥४४॥ किमु प्रजावुष्कृतभस्मसंचयः किमादिसूनोः सुकृतोच्चयोदयः । भवद्यशःस्तोमसमन्वयो ह्ययं घनायितः किन्नु विधोः सुधोदयः ॥४५॥ किमु इत्यादि-हे स्वामिन् ! प्रजाया दुष्कृतस्य पापाचारस्य भस्मसंचय एवार्य किमु, तथादिसूनोर्भरतमहाराजस्य सुकृतस्य पुण्यकर्मण उच्चयोदय एव किमु, तथा भवतां श्रीमतां यशसः स्तोमः समूहस्तेन साद्धं समन्वयः समभावो यस्य सोऽयं, तथा धनायितो निबिडभावायितो विधोश्चन्द्रस्य सुधाया उदय एव किन्नु । इति सतर्को ऽलंकारः ॥४५॥ अनर्गलौद्धत्यवतेऽयि वल्लभ! स्वतः कुजातीन् शतशः पलाशिनः । स्वपल्लवैः सत्पथसंविरोधिनोऽधिकुर्वतेऽस्मै भवतो न किं भयम् ॥४६॥ अनर्गलौद्धत्यवत इत्यादि-अयि वल्लभ ! प्रियवर ! अनर्गलमव्यवच्छेदमौद्धत्यमुच्छृङ्खलत्वं यस्य तस्मै तथा शतशः पलाशिनः पत्रवतश्च मांसभक्षकांस्तथा स्वपल्लव: स्वैः पत्रः पादोपैश्च सत्पथस्याकाशस्य सन्मार्गस्य संविरोधिनोऽवरोधकान् कुजातीन् कोः पृथिव्या जातिरुत्पत्तिर्येषां तान् वृक्षान् कुजातीन् नीचकुलान् वाऽधिकुर्वते विदधतेऽस्मै किं भवतस्त्वत्तो भयं नास्ति ? ॥४६॥ ग्रहण करने वाली है-अत्यन्त कर्कश है, फिर भी मेरे भाग्यसे वह आपको प्रिय है, यह आश्चर्यकी बात है ।।४४॥ ___ अर्थ-यह क्या प्रजाके दुराचारकी भस्मका समूह है या आदिसूनु भरत चक्रवर्तीकी पुण्यराशिका उदय है या आपके यशका समूह है या निबिडताघनीभावको प्राप्त हुआ चन्द्रमाकी सुधा-अमृतका समूह है ।।४५|| अर्थ-हे प्रियवर ! जो रोक-टोक रहित स्वच्छन्दतासे सहित हैं, स्वयं सैकड़ों बार पलाशिनः-मांस खानेवाले एवं स्वपल्लवैः-अपने पादविक्षेपोंसे सत्पथ-समीचीन मार्गका विरोध करने वाले कुजातियों-नीचकुलो लोगोंको धारण करता है, ऐसे इस पर्वतको आपसे क्या डर नहीं लगता? __ अर्थान्तर-जो विच्छेदरहित औद्धत्य-ऊँचाईसे सहित है तथा पलाशिनःपत्रोंसे सहित एवं अपनी नई-नई कपोलोंसे सत्पथ-आकाशको रोकने वाले सैकड़ों कुजातियों-पृथिवीके उत्पन्न होने वाले वृक्षोंको धारण करता है, ऐसे इस पर्वतके लिये आपसे क्या भय है ? अर्थात् नहीं है ।।४६।। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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