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________________ ४३-४४1 चतुर्विशः सर्गः सुकेशि ! इत्यादि-हे सुकेशि ! मुद्रणां मौनवृत्तिमुन्मुद्रय त्यज । इहास्मिन् पर्वतस्य विषये त्वद्वदनादेव सुधाकरादमृतसमुद्रादनाविलां निर्दोषां तथेक्षोः पौण्डस्य या दीक्षाऽऽत्मलाभस्तस्य गुरुर्जन्मदाता तस्य गौरवस्यास्पदं स्थानं यत्र तामिक्षोरप्यधिकमधुरा गिरां पिच्छां वाचां पंक्ति मम तृप्तेः कारणं नियच्छ संवितर 'पिच्छा पंक्तौ च पूगे च' इति विश्वलोचने ॥४२॥ प्रसारयामास समात्तसम्भ्रमा प्रिये हिये दत्तसुविश्रमा क्रमात् । सती सतीर्था मधुनोऽथ भारती रतोतिहेतुं श्रियमेव बिभ्रती ॥४३॥ प्रसारयामासेत्यादि-रतेः कामदेवाङ्गनाया अपीतिहेतुं तिरस्कत्रीं श्रियं सुन्दरता बिभ्रती स्वीकुर्वती सती सुलोचना प्रिय जयकुमारे समात्तः संधृतः सम्भ्रम आदरो यया सा, ह्रिये लज्जाय दत्तः सुविश्रमो विरामो यया सा सुलोचना नाम सती सा क्रमान्मधुनः सतीर्था तत्तुल्यमधुरां भारतों प्रसारयामास ॥४३॥ गिरीश्वरः सोमसमृद्धभालभृत्त्वमसित सेयं गिरिजापि जायते । शिलोच्चयोपात्तकठोरतान्वयापि भाग्यतोऽहो मम गीस्तव प्रिया ॥४४॥ गिरीश्वर इत्यादि-सोमश्चन्द्र इव समृद्धः कान्तिसम्पन्नो यो भालो ललाटस्तं 'बिभर्तीति तथा पक्षे सोमेन समृद्धं चन्द्रेण संपन्नं भालं ललाटं बिभर्तीति तथा, एवंभूतस्त्वं स्वयं गिरां वाचामीश्वरोऽधिपः प्रशस्तवाणीश्वरोऽसि पक्षे गिरीश्वरः शिवोऽथ च गिरीणामीश्वरः कैलासः । इयं सा तव वाणी गिरिजा गिरिमाश्रित्य जातेति पक्षे पार्वतीरूपास्ति । मम सुलोचनायास्तु गीर्वाणो शिलानां प्रस्तराणामुच्चयः समूहस्तस्मादुपात्तो अर्थ-हे सुकेशि ! मौनमुद्रा छोड़ो और अपने मुखरूपी अमृतके समुद्रसे निकलनेके कारण निर्दोष तथा इक्षुसे भी अधिक मधुर एवं मेरी तृप्तिके कारणभूत वचनोंकी पंक्ति प्रदान करो ॥४२॥ अर्थ-जो प्रिय-जयकुमारमें आदर भावको धारण कर रही है, जिसने लज्जाके लिये विराम दे दिया है तथा जो रतिका भी तिरस्कार करने वाली शोभाको धारण कर रही है, ऐसी सती सुलोचनाने क्रमशः मधुतुल्य वाणीको प्रसारित किया ।।४३|| __ अर्थ-सोमसमृद्धभालभृत्-चन्द्रमाके समान समृद्ध ललाटको धारण करने वाले गिरीश्वर-वचनोंके स्वामी हैं (पक्ष में चन्द्रमासे समृद्ध-संपन्न ललाटको धारण करने वाले) आप गिरीश्वर-गिरीश-शंकर रूप हैं और गिरिजा-पर्वतके आश्रयसे उत्पन्न हुई आपको यह वाणी गिरिजा-पार्वतीरूप है। मेरी वाणी यद्यपि शिलोच्चयोपात्तकठोरतान्वया-पाषाण खण्डोंके समूहसे कठोरताके सम्बन्धको For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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