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________________ ११०० जयोदय-महाकाव्यम् [४०-४२ स्वच्छर्ध्वजांशुकैः केतनचीवरैरिवाविच्छिन्नं निरन्तरं निपातशालिभिः संपतद्धिसरैर्नीरस्रोतोभिरयं महीभृतां पर्वतानामुत राज्ञामीशतयेष्यते किलेत्युपमा ॥३९॥ समाप शस्त्रेण सता शतक्रतोरयं च मुग्धे महती हति पुरा । व्रणानि नानोपहतानि जन्तुभिविभान्ति भो गह्वरनामतोऽधुना ॥४०॥ समापेत्यादि-भो मुग्धे ! अयं च पुरा पूर्वकाले शतक्रतोरिन्द्रस्य सता शस्त्रेण वनाल्येन महतों क्षति समापेति भूयते । तत एवास्य व्रणानि यानि जातानि तानि नानाजन्तुभिरुपहतानि व्याप्तानि अधुना गहरनामतो विभान्ति । अपह, नुतिः ।।४०॥ पविच्छवि देवपतौ प्रदर्शयत्ययं पुनः स्विन्न तनुर्भयाढयताम् । सगैरिकाम्भोभरदम्भतो गुहामुखाद्विनिर्यवसनो व्यनक्ति भोः ॥४१॥ पविच्छविमित्यादि-देवपताविन्द्रेऽर्थान्मधे पविच्छवि वज्रस्याकारमाविबुद्दलं प्रदर्शयति सति पुनरयं गिरिः स्विन्ना प्रस्वेदेाप्ता तनुर्यस्य स स्विन्नतनुरात् सजलो भवन् गैरिकया रक्तमृत्तिकया सहितः सगैरिकश्चासावम्भोभरश्च तस्य उम्भतो मिषान् गुहा कन्दरैव मुखं तस्माद् विनिर्यवसनो निर्गलज्जिकः सन् भयाढ्यतां भीतता व्यक्ति प्रकटयति भो प्रिये ! 'देवो राशि सुरे मेघे' इति विश्वलोचने । अपह नुतिरलंकार ॥४१॥ सुकेशि ! उन्मुद्रय मुद्रणां गिरां सुधाकरात् वद्ववनात्वनाविलाम् । इहेक्षुदीक्षागुरुगौरवास्पवां नियच्छ पिच्छां मम तृप्तिकारणम् ॥४२॥ राती हुई ध्वजाओंके वस्त्रोंके समान जान पड़ते हैं, ऐसे अखण्ड प्रपातसे शोभायमान निर्झरोंसे यह पर्वत महीभृतों-पर्वतों अथवा राजाओंका ईश-स्वामी माना जाता है ॥३९|| ___ अर्थ-हे सुन्दरि ! इस पर्वतने पूर्वकालमें इन्द्रके शक्तिशाली शस्त्रसे बहुत भारी क्षति प्राप्त की थी। उस समय जो घाव हो गये थे वे ही इस समय नाना जन्तुओंसे युक्त गुफाओंके रूपमें विद्यमान हैं। भावार्थ-ये गुफाएँ नहीं है, किन्तु घाव हैं और पुराने होनेके कारण उनमें कीड़े पड़ गये हैं ।।४०॥ ___ अर्थ-देवपति-इन्द्र अर्थात् मेघ ज्योंही पवि-वज्र (बिजली) दिखाता है त्योंही सजल प्रदेश होनेके कारण इसके शरीरसे पसीना छूटने लगता है और गुफाओंसे झरने वाले गेरूमिश्रित लाल जलके बहाने जीभ निकल आती है, इस प्रकार यह अपनी भयभीत दशाको प्रकट करता है ॥४१॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.002757
Book TitleJayodaya Mahakavya Uttararnsh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhuramal Shastri
PublisherDigambar Jain Samiti evam Sakal Digambar Jain Samaj
Publication Year1994
Total Pages690
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size15 MB
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